साया - मोपासां की कहानी अ घोस्ट का हिन्दी अनुवाद

कहानी को फ्रेंच भाषा से अंग्रेजी में M. Charles Sommer ने अनुवाद किया था। मैंने इस अनुवाद से हिन्दी में अनुवाद किया है।

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हम कुर्की के क़ानून के ऊपर बात कर रहे थे। इसका कारण हाल में ही निपटा मुकद्दमा था। रु डे ग्रेनेल्ल में मौजूद एक पुराने बंगले में दोस्तों के बीच में  हो रही इस महफ़िल का आखिरी दौर चल रह था। हर एक आगंतुक के पास एक किस्सा था और उसके हिसाब से वह किस्सा सौ फीसदी सच। उसकी एक एक घटना असल में घटित हुई थी।

तभी बयासी साल के मार्किस डे ला टूर सेमुएल उठे और आगे आकर मंटेलपीस का सहारा लेकर खड़े हो गए।उन्होंने अपनी वृद्ध हल्की कंपकंपाती आवाज़ में यह कहानी सुनाई।

"मुझे भी एक अजीब सा अनुभव हुआ है। वह चीज इतनी अजीब थी कि मेरी ज़िन्दगी में वह एक खौफनाक घटना बनकर रह गई है। यह घटना छप्पन साल पहले घटित हुई थी। इतना वक्त गुजर गया है लेकिन फिर भी आजतक ऐसा एक भी महीना नहीं गुजरा जब मैंने उस घटना को ख्वाब में न देखा हो। मेरे मानसपटल पर उस घटना ने दहशत की छाप छोड़ दी थी? आप लोग जो मैं कहना चाहता हूँ वो समझ रहे हैं न?

हाँ, उन दस मिनटों में मैं एक ऐसे खौफ का शिकार हो गया था कि तब से मेरी आत्मा में वह डर बस सा चुका है। अचानक से हुई आवाज़ मेरे शरीर में झुरझुरी उत्पन्न कर देती है। शाम के घिरने पर अनजान चीजों की धुंधली आकृति देखकर मन भाग खड़े होने को होता है। मुझे रात से डर लगता है।"

"मैं अगर जवान होता तो ऐसी किसी भी बात को स्वीकार नहीं करता। मेरी जवानी में मैंने इस चीज का जिक्र भी किसी से नहीं किया था लेकिन उम्र के इस पड़ाव में आकर मुझे कोई चिंता नहीं है। अब मैं सब कुछ बता सकता हूँ। ब्य्यासी वर्ष की उम्र में मैं काल्पनिक खतरों से डर सकता हूँ। इतना हक मुझे मिल चुका है।  हाँ,असल खतरों के आगे मैंने आज तक कभी पीठ नहीं फेरी है, मोहतरमाओं।", उन्होंने महफ़िल में मौजूद स्त्रियों को सम्बोधित करते हुए कहा।

"उस वाकये ने मुझे इतना परेशान कर दिया था,मेरे मन को इतना असंतुलित कर दिया था कि मैं आजतक किसी को कुछ बता नहीं पाया। मैंने इस  बात को अपने मन के उस गहरे कोने में डाल दिया था जहाँ हम अक्सर  अपनी कमजोरियाँ, हमारे ऐसे रहस्य जो शर्मिन्दिगी का बायस बन सकते हैं या कुछ ऐसी बातें रखते हैं जिसके विषय में हम लोग किसी को बता नहीं सकते।”

“मैं आपको उस घटना के विषय बिलकुल उस तरह से बताऊंगा जैसे वो मेरी साथ घटित हुई थी। मैं कोई स्पष्टीकरण नहीं दूँगा। मुझे उसके होने का कोई कारण समझ नहीं आता है सिवाय इसके कि उस समय कुछ वक्त के लिए मेरे ऊपर पागलपन का कोई दौरा पड़ गया रहा हो। लेकिन मुझे कोई ऐसा दौरा नहीं पड़ा था और इस बात को मैं आप सबके सामने साबित भी कर सकता हूँ। आप कुछ भी सोचने के लिए स्वतंत्र हैं। लेकिन सच्चाई कुछ इस तरह है"-

“वह १८२७ के जुलाई का महीना था। मैं अपनी पलटन के साथ रुआहं में बसा हुआ था। एक दिन मैं नदी के किनारे टहल रहा था जब मुझे एक आदमी दिखा। मुझे लगा जैसे मैं उसे जानता होऊँ लेकिन मुझे कुछ याद नहीं आ रहा था और इस कारण मैंने अपने चलने की गति कम कर ली थी। मैं रुकने को तैयार था। उस अनजान आदमी ने मुझे और मेरे चेहरे के भावों को देखा और फिर मेरे से बगलगीर होकर मिला।"

“वो मेरे बचपन के दिनों का दोस्त था और हम लोगों की दोस्ती काफी गहरी हुआ करती थी। उसे देखकर ऐसा लग रहा था जैसे इन पाँच सालों में उसकी उम्र में पचास साल का इजाफा हो गया हो। उसके बाल सफ़ेद हो चुके थे और वो झुक कर कुछ इस तरह चलता था जैसे ज़िन्दगी से थक चुका हो। वो मेरे मन में उठे विस्मय के भावों को समझ गया और उसने मुझे अपनी आप बीती सुनाई।”


“एक बुरे हादसे से उसे तोड़ सा दिया था। वो एक लड़की से बेइंतेहा मोहब्बत करने लगा था और इसी इश्क के खुमार में उसने शादी भी कर ली थी।एक साल तक उसकी ज़िन्दगी की बगिया भरपूर खुशियों से गुलज़ार रही थी। लेकिन एक साल बाद दिल की बीमारी से उसकी बीवी का अचानक इंतकाल हो गया था। शायद इतना ज्यादा प्यार वह सहन न कर सकी हो।”

"उसकी अंतिम क्रिया के अगले दिन ही मेरे दोस्त ने देश छोड़ दिया था। वह  इधर रुआहं के एक होटल में आकर रहने लगा था। वह इधर ही रुक गया था- तन्हा और बेबस। उसने वापस जाने की कभी कोशिश नहीं की। उसका दुःख धीरे धीरे उसे खाने लगा था। वह अपनी ज़िन्दगी से  इतना मायूस हो चुका था कि कई बार उसने अपनी इहलीला समाप्त करने के विषय में सोच लिया था।"

" 'अब चूँकि मैं तुमसे  भाग्यवश मिल चुका हूँ', उसने मुझसे कहा,'मैं तुमसे एक मदद माँगूँगा। देखो मना मत करना। मेरे घर में कुछ जरूरी कागजात हैं। क्या तुम उधर जाकर उन्हें ले आओगे? वह कागज़ात मेरे लिखने वाले टेबल में रखे हुए है। टेबल मेरे मेरा मतलब  हमारे कमरे में मौजूद है। मैं किसी नौकर या वकील को उधर नहीं भेज सकता चूँकि इस काम की किसी को भनक नहीं लगनी चाहिए। इस मामले में कोई हो हल्ला नहीं होना चाहिए। बिलकुल शान्ति से इस काम को अंजाम देना पड़ेगा।'”


“ 'मैं तुम्हे अपने कमरे की चाबी,जिसे कि मैंने खुद उधर से आने से पहले ताला लगाकर बंद किया था, और टेबल के दराज की चाबी भी दे दूँगा। मैं माली के नाम एक चिट्ठी लिखकर भी तुम्हे दे दूँगा ताकि वो तुम्हे बंगले में दाखिल होने दे।'"

“ 'मेरे कमरे में कल नाश्ते के लिए आओ और हम इस मामले के ऊपर पूरी बात करेंगे।'
मैंने उससे वादा किया कि मैं उसका यह काम कर दूँगा। मेरे लिए एक रोचक काम होगा और मेरा भी मन बहल जाएगा। वैसे भी उसका घर रुआहं से पच्चीस मील दूर ही था। मैं घोड़े पर एक घण्टे में उधर पहुँच सकता था।”

“अगले दिन दस बजे मैं उसके साथ था। हम लोगो ने अकेले नाश्ता किया लेकिन नाश्ते के दौरान उसने मुश्किल से दस से बीस शब्द भी न कहे होंगे। वह अपने इस व्यवहार पर शर्मिंदा था और उसने मुझसे इसके लिए माफ़ी माँगी। परन्तु यह विचार कि मैं ऐसी जगह जाने वाला था जहाँ उसकी खुशियों के टुकड़े हुए थे उसे परेशान कर रहा था,उसने मुझसे कहा।  वह सच में ही परेशान, घबराया हुआ लग रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे उसके मन में कोई रहस्यमय ऊहापोह चल रही  हो।”


“आख़िरकार उसने मुझे बताया कि असल में मुझे क्या करना था। वह काम काफी साधारण था। टेबल के दायें हिस्से में मौजूद पहले दराज में चिट्ठियों के दो पैकेट और कुछ कागज़ात थे जिन्हें मुझे लाना था। मुझे दराज की चाबी पहले से ही दे दी गई थी। ” 

"'हाँ, उन्हें खोलकर देखना मत।' उसने मुझे हिदायत देते हुए कहा।
मुझे उसकी बात का बहुत बुरा लगा था। और इस बात को मैंने उसे कड़े शब्दों में बताया। उसने हकलाते हुये कहा - 'म.. मुझे माफ़ करना। मैंने काफी तकलीफ सही है।' और यह कहते हुए उसकी आँखों से आँसूं आने लगे।"

"मैं लगभग एक बजे इस काम के लिए निकला। खुशनुमा दिन था।मैं खूबसूरत घास के मैदानों में चिड़ियों की चहचाहट को सुनता हुआ और अपनी तलवार की लयबद्ध थपथपाहट अपने जूते पर करते हुए तेजी से आगे बढ़ रहा था।"

"फिर मैं जंगल में दाखिल हुआ और अब मैंने अपने घोड़े की गति कम कर दी थी। हम दौड़ने के जगह चल रहे थे। पेड़ों की टहनियाँ मेरे चेहरे को छू रही थी। कभी कभी मैं किसी पत्ती को दांतों के बीच में पकड़ लेता और उसे आनन्द से चबा देता। मैं ऐसा हर्ष महसूस कर रहा था जो कभी कभार आपको बिना कारण ऐसी प्रसन्नता से भर देता है कि  एक अलग तरह की ऊर्जा का आभास आपको होने लगता है।"

"जब मैं घर के नज़दीक पहुँचा तो मैंने माली के लिए दी हुई चिट्ठी निकाली और यह देखकर मुझे ताज्जुब हुआ कि वह मुहरबंद थी।यह देखकर मैं न केवल आश्चर्यचकित था  बल्कि मुझे चिढ भी होने लगी थी। आलम यह था कि मैं बिना काम किये वापस जाने लगा था। मेरे दोस्त ने मुझे क्या इतना गया गुजरा समझा था। तांका-झाँकी करने का मुझे कोई शौक नहीं था। फिर मैंने सोचा ऐसा करना अति संवेदनशीलता दिखाना होगा और अच्छा नहीं होगा। मेरे दोस्त चूँकि इतना घबराया हुआ था तो शायद उसने बेध्यानी में यह काम कर दिया था।"

“बंगला ऐसा लग रह था जैसे वह बीसियों सालों से उधर कोई रहता न हो। उसका खुला हुआ दरवाजा  इतनी बुरी हालत में था कि अचरज होता था कि यह खड़ा कैसे है। रास्ते में घास उगी हुई थी और फूलों की क्यारियों और लॉन के बीच का फर्क बताना मुश्किल हो रहा था।”

“किवाड़ को लात से खोलने के कारण हुई आवाज़ से बगल के दरवाजे से एक बूढा आदमी बाहर आया। वो मुझे उधर देखकर आश्चर्यचकित था। मैं अपने घोड़े से उतरा और मैंने उसे चिट्ठी दी। उसने चिट्ठी को एक बार पढ़ा, फिर दूसरी बार पढ़ा और फिर उसने उसे उलट-पलट कर देखने के बाद संदेह पूर्वक मुझे देखते हुए कहा:
'हाँ, आपको क्या चाहिए?'
मैंने कुछ तल्खी से कहा: 'तुम्हे पता होना चाहिए क्योंकि तुमने अपने मालिक की चिट्ठी अभी पढ़ी है। मैं घर के अंदर जाना चाहता हूँ।'
वो कुछ घबराया सा दिख रहा था। 'तो.. क..क्या तुम उनके कमरे में जाना चाह रहे हो?'
मैं अब  अपना आपा खोने लगा था।
'अजीब मजाक है! क्या तुम्हे मेरे अन्दर दाखिल होने से कुछ परेशानी है?', मैंने उसे डाँटते हुए कहा।
'नहीं नहीं,महाशय।', उसने कहा- 'बस बात ऐसी है कि मालकिन की मृत्यु के बाद इसे आजतक खोला नहीं गया है। अगर आप पाँच मिनट ठहरे तो मैं अंदर जाकर...'
'देखो!क्या तुम मजाक कर रहे हो?' मैंने उसे टोकते हुए कहा। 'जब चाबी मेरे पास है तो तुम कैसे अदंर चले जाओगे? तुम्हारा दिमाग तो ठीक है न?'
उसे अब समझ नहीं आ रहा था कि उसे क्या कहना है।
'फिर ठीक है महाशय, मैं आपको रास्ता दिखाता हूँ। चलिए मेरे साथ।'
'तुम बस मुझे सीढ़ियों तक का रास्ता दिखाओ। बाकी का काम मैं खुद कर लूँगा। तुम्हे उसकी चिंता करने की जरूरत नहीं है।'
'प...  पर साहब'
उसका बोलना था कि मैं अपना आपा खो बैठा -'तुम चुप हो जाओ वरना तुम्हे पछताना पड़ेगा।'और यह कहकर मैं उसे एक तरफ धकेला और घर के भीतर दाखिल हुआ। 'जैसा मालिक वैसा नौकर', मैं बुदबुदाया।"

"रसोईघर से होता हुआ मैंने उन दो छोटे कमरों, जिनमे वह आदमी और उसकी पत्नी रहा करते थे,को पार किया और एक से हॉल में दाखिल हुआ।मैं  सीढ़ियों से ऊपर चढ़ा और कुछ ही देर में मैंने खुद को उस दरवाजे पे पास पाया जिसका विवरण मेरे दोस्त ने मुझसे किया था।"

"मैंने उसे आसानी से खोला और अन्दर दाखिल हुआ।"

"उस कमरे में इतना अधिक अँधेरा था कि हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था। मैं थोड़ी देर के लिए रुक गया। अन्दर दाखिल होते ही मेरे नथुनों से सीलन से उत्पन्न हुई  बदबू का एक भभका टकराया था।  ऐसी बदबू अक्सर ऐसे कमरों से आती थी जो वीरान पड़े रहते हैं। ऐसा लग रहा था मानो कमरा कोई जीवित जीव हो जो मर गया हो और अब उसके शरीर से यह बदबू उत्पन्न हो रही हो।  कुछ देर बाद ही मैं उस बदबू का आदि हो चुका था।  फिर धीरे धीरे मेरी आँखें उस अँधेरे में देखने के काबिल हुई। मैंने देखा कि कमरा अव्यवस्थित था। उधर एक बिस्तर था जिससे चादर नदारद थी। उसमें अभी  भी गद्दा और तकिया बदस्तूर रखा हुआ था। तकिये में सिर या कोहनी की एक गहरी छाप अभी भी देखी जा सकती थी। ऐसा प्रतीत होता था मानो कोई व्यक्ति उस तकिये पर कुछ देर पहले आराम कर रहा था।"

"कुर्सियां कमरों में बेतरतीब तरीके से फैली हुई थीं। मैंने नोट किया कि एक दरवाजा, जो शायद किसी कोठरी का था, हल्का सा खुला हुआ था।"

"सबसे पहले मैं खिड़की की तरफ बढ़ा। मेरा विचार था कि खिड़की खुलेगी तो सूर्य का प्रकाश कमरे में आएगा। मैंने उसे खोला तो हल्की से रोशनी अन्दर आई। मैं खिड़की को पूरी तरह न खोल पा रहा था क्योंकि  खिड़की के बाहरी किवाड़ जंग के कारण आपस में ऐसे चिपक गये थे कि खोलना तो दूर मेरे लिए उन्हें हिलाना भी दूभर हो रहा था।"

"मैंने अपनी तलवार से उन्हें तोड़ना भी चाहा लेकिन फिर भी उसमें कामयाबी नहीं मिली। अपनी नाकामयाब कोशिशों से मैं परेशान होने लगा था। कमरे में हल्की रोशनी तो हो गई थी और फिर अब मेरी आँखें अब इस कम रोशनी में देखने  की अभ्यस्त हो गई थी। मैं कमरे रोशनी बढ़ाने के अपने ख्याल को तिलांजलि दे दी। मैं अब वह काम करना चाहता था जिसके लिए मैं यहाँ आया था। मैं अपने दोस्त की लिखने की मेज की तरफ बढ़ा।"

"मैं एक आराम कुर्सी पर बैठा, मैंने टेबल के ऊपरी भाग को पीछे किया और अपने मलतब का दराज खोला। वो दराज आखिर तक खचाखच भरा  हुआ था। मुझे इन सब पैकेटों में से अपने मतलब के केवल तीन पैकेट उठाने थे। मुझे पता था वो कैसे दिखते थे तो मैं उनकी तलाश करने लगा।"

"मैं ध्यान लगाकर पैकेट के ऊपर दर्ज चीजों को पढ़ने की कोशिश कर रहा था कि मुझे ऐसे लगा जैसे मेरे पीछे हल्की सी सरसराहट सी हुई हो। मैंने उस तरफ ध्यान नहीं दिया। मुझे लगा हवा से कोई पर्दा हिला होगा। लेकिन कुछ देर बार मुझे फिर कोई हलचल सी महसूस हुई। अबकी बार मुझे कोई शक या शुबहा नहीं हुआ था और इस ख्याल ने मेरे शरीर में हल्की सी झुरझुरी पैदा कर दी। यह ख्याल इतना बचकाना था कि मैंने शर्म के मारे मुड़ कर भी नहीं देखा। मैंने अभी अभी  तीन में से दूसरा पैकेट ढूँढ लिया था और अब तीसरे पैकेट को तलाश कर रहा था कि तभी मुझे एक तेज और दुःख से भरी आह अपने कंधे के पास महसूस हुई। आवाज़ सुनते ही मैं झटके से अपने कुर्सी छोड़कर दो गज आगे की तरफ कूदा। कूदते हुए मैं पीछे मुड़कर देख रहा था और मेरा हाथ अपनी तलावार की मूठ पर था। अब मैं सोचता हूँ तो यह जानता हूँ कि अगर उस वक्त मुझे अपनी तलवार की मूठ का अहसास नहीं होता तो मैं उधर से एक कायर की तरह भाग गया होता।”


“सफ़ेद कपड़े पहने एक लम्बी औरत मेरे सामने खड़ी थी। वह उसी कुर्सी के पीछे खड़ी थी जिस पर कुछ देर पहले मैं बैठा हुआ था।”


"यह देखकर मेरे शरीर में ऐसी कंपकंपाहट सी हुई कि एक पल के लिए मेरा संतुलन बिगड़ गया और मैं पीछे की ओर गिरते गिरते बचा। ओह! उस डर को कोई नहीं समझ सकता है। अगर आपने उस चीज को महसूस नहीं किया है तो आप इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं कि  उस वक्त किस तरह का खौफ महसूस होता है। आत्मा पिघलती से महसूस होती, दिल की धड़कन रुक सी जाती; पूरा शरीर शिथिल हो जाता है और ऐसा लगता है जैसे आपके भीतर तक आपका अस्तित्व टूट सा रहा है।"

"मुझे प्रेतों और आत्मा पर कोई कभी  विश्वास नहीं रहा है। मृत लोगों का भय मुझे कभी नहीं रहा लेकिन फिर भी मैं इस वक्त उस खौफ को महसूस कर रहा था ओह! मैं कितना डरा हुआ था। आज भी सोचता हूँ तो मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मैं यह कह सकता हूँ कि उन चंद मिनटों में एक तरह का परालौकिक डर महसूस किया और उस डर जैसा डर मैंने आजतक कभी महसूस नहीं किया है।"

"अगर उस साए ने उस वक्त कुछ बोला नहीं होता तो शायद मैं मर चुका होता। लेकिन वह बोली थी और वह आवाज़ इतनी कोमल और शोकाकुल थी कि मुझे अजीब सा महसूस हुआ। मैं यह नहीं कह सकता कि मैंने अपना संतुलन वापस पा लिया था। नहीं, अब मुझे इस बात का अहसास नहीं था कि मैं क्या कर रहा हूँ  पर चूँकि मेरे अंदर का अभिमान अभी मरा नहीं था और फिर एक सैनिक होने के नाते भी मेरा प्रशिक्षण ऐसा हुआ था कि डरे हुए होने के बाद भी डर के भावों को मैंने अपने चेहरे पर नहीं आने दिया।  मैंने अपने चेहरे पर एक नकाब ओड़ लिया था। यह नकाब मेरे लिए भी उतना ही था जितना कि उसके लिए जो मेरे सामने खड़ी थी। फिर चाहे वो जो कोई भी थी - औरत या प्रेत। मुझे बाद में इस बात का अहसास  हुआ कि उस साए के सामने मुझे कोई नहीं सूझ रहा था। मैं किसी चीज के विषय में नहीं सोच रहा था। मैं डरा हुआ था।"

"उसने मुझसे  कहा - 'ओह, आप मेरी मदद कर सकते हैं, मिस्टर।'"

"मैंने जवाब देने की कोशिश की थी लेकिन मैं कुछ भी बोल नहीं पा रहा था। मुझे लग रहा था कि मेरी जबान तालू पर चिपक गई थी। मेरे गले से हल्की अजीब सी ध्वनि जिसको समझना मुश्किल था।"

"उसने बोलना चालू रखा - “क्या आप मेरी मदद करेंगे? आप मुझे बचा सकते हो, मुझे ठीक कर सकते हो। मैं तड़प रही हूँ। मैं हमेशा तड़पती हूँ। मैं इतने दुःख में हूँ, इतने कष्ट में हूँ।ओह! यह पीड़ा मैं सहन नहीं कर पा रही हूँ।'”

"फिर वह उसी कुर्सी पर बैठ गई जिस पर कुछ देर पहले मैं बैठा हुआ था। उसने मुझे कातर निगाहों से देखा और कहा - 'क्या आप मेरी मदद करोगे?'"
मैं कुछ कहने की स्थिति में नहीं था इसलिए मैंने अपनी गर्दन को हल्की सी जुम्बिश सी दी।

"उसने फिर मुझे एक औरतों वाली कछुए के खोल से बनी कंघी दी और बुदबुदाई - 'मेरे बाल बना दोगे! क्या तुम मेरे बाल बना दोगे। इससे मुझे आराम मिलेगा। मेरे सिर को देखो। मैं पीड़ा मैं हूँ। मेरे बालों को देखो। इनके कारण कितना दर्द हो रहा है मुझे। कबसे इन्हे नहीं बनाया गया है।'"

"उसके खुले हुए बाल बहुत लम्बे, बहुत स्याह थे। मुझे ऐसा लग रहा था कि कुर्सी की पुश्त से उसके बाल नीचे जमीन तक छू रहे थे।"

“मैंने  क्यों उसकी बात मानी? मैंने क्यों उसकी कंघी ली और मैंने क्यों उसके बालों को अपने हाथों में लिया। अपने हाथों में उसके बालों की छुअन से मुझे एक सर्द सा अहसास हुआ। ऐसा लग रहा था जैसे मैं बाल नहीं अपितु सर्पों के सर्द शरीर को पकड़ रहा हूँ। मुझे नहीं पता। ”

"वो लिसलिसा सा अहसास अभी भी मैं अपने उँगलियों  के बीच में महसूस कर सकता हूँ।मैं जब भी उस बारे में सोचता हूँ तो डर से कांप जाता हूँ।"

"मैंने उसके बालों को बनाया। उन पर कंघी फिराई। उन ठण्डे ,लिसलिसे बालों पर मैंने बाँधा, उन्हें खोला, उनकी चोटी बनाई। मैंने उसके बालों को इस तरह से गूँथा जिस तरह से घोड़े के गले के  बालों को अक्सर गूँथा जाता है। यह सब कैसे कर पाया खुदा ही जाने।  उसने एक हल्की सी आह भरी, उसने अपना सिर झुकाया और वह अब खुश दिखाई दे रही थी।"

"अचानक उसने मुझसे कहा  - “शुक्रिया।”- फिर झटके से उसने मेरे हाथों से कंघी झपटी और तेजी से कुर्सी से उठकर उस कोठरी के दरवाजे की ओर भाग गई जिसको थोड़ा सा खुला हुआ मैंने पहले देखा था।


"मैं अब उधर अकेले खड़ा हुआ था। कुछ क्षणों के लिए मैं  ऐसा महसूस कर रहा था जैसे हम किसी खौफनाक सपने से उठने के बाद महसूस करते हैं। मैं इस धुंध से बाहर आया और भागकर खिड़की के पास गया।मैंने अपने भीषण प्रहारों से उस खिड़कियों के पल्लों को तोड़ दिया था।"


"एक रोशनी की किरण खिड़की से अन्दर दाखिल हुई। मैं उस दरवाजे की तरफ गया जहाँ वो साया भागकर गया था। मैंने उसे बंद पाया। मैंने उसे खोलने की कोशिश की लेकिन मैं उस दरवाजे को हिलाने में नाकमयाब रहा था।"

"फिर एक आंतक की भावना ने मुझे जकड़ दिया। ऐसी भावना जिसके चलते मैं उधर से जल्द से जल्द भागना चाहता था। मैंने जल्दी से चिट्ठियों के तीनों पैकेटों को टेबल से उठाया और रूम से भागता हुआ निकला। मैं एक बार में चार चार सीढ़ियाँ कूद रहा था।  मैंने खुद को बाहर पाया और न जाने कैसे मैंने अपने घोड़े को नज़दीक पाकर एक ही छलाँग में उस पर सवार हो गया। फिर अपने घोड़े को सरपट दौड़ाता हुआ मैं उधर से निकल गया।"

"मैं तब तक नहीं रुका जब तक मैं रुआहं नहीं पहुँच गया था। मैं अपने घर के सामने खड़ा था। मैंने अपनी लगाम अपने अर्दली को दी, और अपने कमरे में जाकर अपने आप को बंद कर दिया। जो कुछ मेरे साथ हुआ मैं उसके विषय  में सोचना चाह रहा था।"

"फिर कुछ समय तक मैं खुद से यही प्रश्न करता रहा कि कहीं मुझे कुछ दृष्टिभ्रम तो नहीं हुआ था। जो मैंने देखा वो मेरी कल्पना तो नहीं थी। जरूर घबराहट के कारण मेरे दिमाग पर असर हुआ और उसी के कारण मुझे यह परालौकिक अनुभव हुआ होगा। ऐसे मामलों में अक्सर ऐसा ही कुछ झटका दिमाग पर लगता है जिससे परालौकिक ताकतों से मिलने का भ्रम होता है। 'हाँ ऐसा ही कुछ हुआ होगा'- मैं खुद से ही बुदबुदाया।"

"मैंने अपने आप को समझा दिया था कि मुझे कुछ न कुछ गलफहमी हो गई थी। मैंने लगभग यह बात तय कर ली और अब अब मैं अपनी खिड़की की तरफ आया कि इत्तेफाकन मैंने नीचे को देखा। मेरे ट्यूनिक के बटन के बीच में काले स्याह बाल फँसे हुए थे। वे बाल किसी औरत के थे।"

"मैंने उन्हें एक एक करके निकाला और काँपती उँगलियों से उन्हें खिड़की के बाहर फेंका।"

“मैंने फिर  अपने अर्दली को बुलाया। मैं उस दिन बहुत परेशान, बहुत भावुक महसूस कर रहा था। ऐसे हालात में मैं अपने दोस्त पास नहीं जाना चाहता था। फिर मुझे अपने इस अनुभव के विषय में उससे क्या कहना है, यह भी मुझे सोचना था।”

“मैंने अपने अर्दली से उसे उसकी चिट्ठियाँ पहुँचाई। उसने सैनिक को रसीद दी। उसने मेरे विषय में पूछा तो उसे बताया गया कि मेरी तबियत नासाज़ थी। मुझे सनस्ट्रोक या ऐसा ही कुछ हुआ था जिसके कारण मैं खुद आने में असमर्थ था। वह मेरे विषय में सुनकर परेशान लग रहा था। यह मुझे बताया गया।”

“मैं अगले दिन सुबह-सुबह उससे मिलने गया। मैं उसे सच बताना चाहता था। वो उससे पहली शाम को बाहर गया हुआ था और अब तक वापिस नहीं आया था।”

"मैं उसी दिन वापस फिर गया लेकिन उसका कुछ पता नहीं चला था। मैंने एक हफ्ते तक इंतजार किया। वह  वापिस नहीं आया। मैंने पुलिस को खबर दी। उन्होंने उसे हर जगह देखा लेकिन किसी को भी उसकी खबर नहीं लगी।"

“उस वीरान  बंगले की बड़ी बारीकी से खोजबीन की गई थी। वहाँ से कुछ भी संदिग्ध चीज नहीं पाई गई थी।”

“उधर कोई औरत छुपा कर रखी गई हो ऐसा कुछ सुराग उधर नहीं मिला था।”

“तफ्तीश से चूँकि कोई परिणाम नहीं निकला था तो खोजबीन आगे नहीं बढ़ाई गई।”

"और इन छप्पन सालों में मुझे इससे ज्यादा कुछ ज्ञात नहीं हुआ है। मुझे आजतक सच्चाई का पता नहीं लगा है।"

                                                               ****समाप्त ****
© विकास नैनवाल 'अंजान'
अंग्रेजी में कहानी आप इधर पढ़ सकते हैं:

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14 टिप्पणियाँ

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  1. कहानी अच्छी है। लघु है रोमांच बनाती है। आपने हिंदी में अच्छा अनुवाद किया है। मुझे आपके अनुवाद की शैली और शब्द चयन पसंद आये। 2 जगह मामूली व्याकरण संबधी गलती नजर आई जो नजरअंदाज हो गई। जिससे कहानी पर कोई फर्क नही पड़ता। आप ऐसे ही दूसरी भाषा से हिंदी में अनुवाद करते रहे।

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    1. शुक्रिया राकेश भाई। आपकी टिप्पणियाँ मुझे और अच्छा काम करने के लिए प्रेरित करती रहेंगी।

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  2. Kahaani achhi hai...aisi hi kahaniyo ka intezaar rahega...bahut badhiya Rajeev...

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    1. शुक्रिया,समीर जी। ब्लॉग पर आते रहिएगा। आपको ऐसी कहानियाँ मिलती रहेंगी।

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  3. बहुत शानदार। ज़बरदस्त अनुवाद। कृपया इसी प्रकार और भी रचनाएं प्रेषित करें।

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    1. शुक्रिया,असद जी। ऐसी दूसरी रचनाएँ भी ब्लॉग पर आती रहेंगी। आप ब्लॉग पर आते रहियेगा।

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  4. बहुत ही उम्दा अनुवाद विकास जी, ऐसे अनुवाद और पढ़ना चाहेंगे, चाहे क्लासिक्स हो पर या तो हॉरर या मिस्ट्री हो, शब्दों का चयन सचमुच उम्दा है, जैसे ऊहापोह,
    सराहनियां अनुवाद, अगले अनुवाद का इंतज़ार रहेंगा।

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    उत्तर
    1. शुक्रिया, अमित जी। आपकी टिपण्णी मुझे और अच्छा करने के लिए प्रेरित करती रहेंगी। जी इधर ऐसे ही अनुवाद करने की कोशिश करूंगा जिसमे रहस्य,रोमांच और हॉरर के तत्व हों।

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  5. विकास जी बहुत ही बढ़िया भाषा शैली में आप ने कहानी का अनुवाद किया ... कहानी का कोई सारगर्भित अंत नहीं है ... फिर भी आप की सुनहरी कलम ने इसे पठनीय बना दिया है ! 👏👏👏👏👏👏🙏

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    1. शुक्रिया,जी।ज़िन्दगी में कुछ न कुछ ऐसा घट जाता है जिसको समझ पाना इनसान की बस में नहीं होता है। यह कहानी भी ऐसी है। मेरा ख्याल है कि अगर कहानी में रहस्य सुलझ गया होता तो शायद वो ऐसी न होती जिसके विषय में आदमी 56 साल बाद भी सोचता रहे। फिर वह एक साधारण घटना रह जाती। दोस्त का चिट्ठियाँ मिलते ही गायब होना भी कई सवाल छोड़ता है। क्या पता वो षड्यंत्र रहा हो? क्या पता कुछ और बात रही हो? यह अनेक सवाल ही कहानी हो रोचक और खौफनाक बनाते हैं। आपने टिपण्णी की अच्छा लगा। अपना नाम भी लिख देते तो और अच्छा होता।बहरहाल आपने पढ़ा और उसके बाद अपने विचार साझा किये उसके लिए आभार। ब्लॉग पर आते रहिएगा।

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  6. अन्त बडा बकवास था। कुछ तो खुलासा होता।

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    1. कई बार ज़िन्दगी ऐसी ही होती है। कुछ रहस्य रहस्य बनकर ही रह जाते हैं।

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  7. मोपासां की कहानी मुझे पसंद हैं ।ये कहानी भी मुझे पसंद आई और आपने अनुवाद भी बहुत अच्छा किया है।🙏🙏👍👍

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