चेतन और मैं


अप्रैल, 7 2017,शुक्रवार 


स्रोत : गुडरीडस  

कल मैं ऑटो में बैठा था तो मेरे हाथ में मन्नू भंडारी जी का उपन्यास स्वामी था। मैं उसके अंत के करीब पहुँच चुका था। उपन्यास छियानवे पृष्ठों का था और मैं ब्यान्न्वे पृष्ठ में था कि ऑटो रुका क्योंकि हुडा सिटी सेण्टर आ गया था। मैंने उपन्यास बंद किया और किराये के पैसे दिए और हुडा की तरफ मुड़ गया।

अक्सर रोज ही ऐसा होता है। हुडा के फोर्टिस की साइड वाले गेट से अन्दर घुसता हूँ और फिर टिकेटघर के सामने वाले गेट से बाहर निकल कर ऑफिस की तरफ जाता हूँ। इसमें कुछ नया नहीं था। नया था तो ये कि जैसे ही मैं हुडा के पहले गेट की तरफ मुड़ा मेरे मन में चेतन भगत का ख्याल आया। मैं खुद हैरान था। लेकिन मन क्योंकि बांवरा है तो मैं ऐसे यहाँ वहाँ कुलांचे मारते ख्याल जब उभर आते हैं तो पल भर के अचरच के बाद मैं उन्हें स्वीकार कर लेता हूँ।

तो चेतन भगत के बारे में बात करूँ तो मैंने उनके तीन उपन्यास पढ़े हैं। और उसके इलावा जो पढ़ा है उसमे उन्हें ज्यादातर गरियाया ही जाता है। सच बताऊँ तो मुझे इस गरियाने से बहुत बुरा लगता है। कई बार तो उनके नये उपन्यासों के रिव्यु जब गुडरीडस जैसी साईट में पढता था तो लगता था कि कई लोग खाली इसलिए उनके उपन्यास पढ़ते हैं ताकि ये ऐलान कर सके कि उनके उपन्यास कितने वाहियात हैं और वो कितने निचले दर्जे के लेखक। शायद प्रसिद्धि का ये एक साइड इफ़ेक्ट भी होता है कि लोग आपको नीचे गिराने में तुले रहते हैं। फिर वो डैन ब्राउन हो, स्टेफनी मेयर हों या अपने भगत। आप इनकी किताबों के रिव्यु पढेंगे तो ज्यादातर पढने वाले इन्हें गालियाँ ही देते हैं लेकिन फिर भी अगली किताब पढ़ते हैं। ये बात मुझे समझ नहीं आती।



खैर, मैं बात से भटक रहा हूँ या कहूँ तो डाईग्रेस(digress) कर रहा हूँ। ये पोस्ट रिव्यु लिखने वालो के लिए नहीं है बल्कि चेतन के लिए हैं।

मैंने उनके जो तीन उपन्यास पढ़े थे वो कक्षा ग्यारहवीं ,बारहवीं और उसके एक साल बाद में जब ड्राप किया था तो उस बीच में  पढ़े थे यानी २००६ से २००८ के वक्फे में।  जो उपन्यास मैंने पढ़े वो फाइव पॉइंट समवन , वन नाईट ऐट दी कॉल सेण्टर और थ्री मिस्टेक्स ऑफ़ माय लाइफ थे। इसके बाद लिखे उपन्यासों को पढ़ नहीं पाया क्योंकि उसके बाद मेरे पढने का दायरा काफी बढ़ गया था। मुझे थ्रिलरस, हॉरर, मिस्ट्री पढने का चस्का लग गया था।  क्या मैं उनके लिखे बाकि के उपन्यास पढूँगा,पता नहीं। लेकिन फिर ये पोस्ट क्यों?

क्योंकि मैं कई दिनों से लिखना चाह रहा था कि मैंने उनके जो उपन्यास पढ़े हैं वो क्यों मुझे अच्छे लगते हैं।

पहले आते हैं फाइव पॉइंट समवन के ऊपर। ये उपन्यास मैंने दोस्त से लेकर ही पढ़ा था। मैं ग्यारहवीं में था। दसवी से ही आईआईटी के विषय में सुनता था लेकिन कुछ आईडिया नहीं था कि वो क्या होता है। पौड़ी से आया था तो स्कूल में आने पर एक शॉक सा लगा था। मुझे मालूम हुआ कि कई बच्चे ग्यारहवीं की पढाई से पहले ही आई आई टी की कोचिंग लेने लगे हैं। और स्कूल में भी आईआईटी के चर्चे थे।  स्कूल में ही पता लगा कि आई आई टी कोई कोर्स नहीं था बल्कि एक कॉलेजेस का समूह था जहाँ इंजीनियरिंग के विभिन्न शाखाओं की पढ़ाई होती थी।

फिर ज़िन्दगी में उपन्यास आया तो पता लगा कि ये आई आई टी में ही पढने वाले बच्चों के लाइफ के ऊपर था। मन में कोतुहल जगा और इसे पढ़ लिया। पढ़कर अच्छा भी लगा। लगा  कि ये बच्चे तो हमारे ही जैसे हैं। इनकी अपनी परेशानियाँ हैं जिनसे हम रिलेट कर सकते हैं। ये कहानी तो भाई अपनी ही है। और जिस कहानी या किरदार में आप अपने को देखो वो आपको पसंद आता ही है। और साथ के जिस भी लड़के ने इसने पढ़ा उसने अपने को रिलेट किया फिर वो विज्ञान स्ट्रीम का हो या कॉमर्स का या आर्ट्स का। ये किरदार हमारी ही भाषा बोलते थे जो कि बाकी के अंग्रेजी उपन्यासों में नहीं था। और इनका जो सोशल मिलीयू (social milieu) था वो भी अपने जैसे ही निम्न मध्यम वर्गीय या मध्यम वर्गीय था। इसके तीनों प्रमुख पात्रों में ऐसा कुछ था जो मुझे अपना लगता था। चाहे वो उनका कंफ्यूजन हो, चाहे प्रेम पाने की लालसा या चाहे कोई मजबूरी।  फिर उपन्यास की कीमत भी ऐसी की हम लोग इसको अफ्फोर्ड कर सकते थे।

तो कुल मिलाकर ये उपन्यास ऐसा था जिससे ग्यारहवीं -बारहवीं या कॉलेज में पढ़ रहा हर बच्चा रिलेट कर सकता था और शायद यही रिलेटिब्लिटी इसके प्रसिद्द होने का कारण भी था। मैं जब पढता हूँ तो भाषा की सुन्दरता मुझे इतनी जरूरी आज भी नहीं लगती है। अगर आपकी भाषा साधारण है लेकिन आपकी कहानी और पात्रों से पाठक कुछ जुड़ाव सा महसूस करता है तो वो आपको पढ़ेगा। अगर ये जुड़ाव नहीं है खाली भाषा की सुन्दरता आपका कुछ नहीं कर सकती। यहाँ मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि भाषा की सुन्दरता कोई मायने नहीं रखती लेकिन मेरे लिए ये आप्शनल है। कई बार तो लेखकों की इस  खूबसूरती से लिखने की कोशिश में ऐसे वाक्य मैंने पढ़े हैं  जिनको पढ़ने के बाद सर खुजाना पड़ता है कि भाई लिखा तो अच्छा है लेकिन कहना क्या चाहते हो। और कई बार ऐसा लेखन कहानी के बहाव के आड़े आते हुए देखा है। खैर, वो जुदा मसला है।

तो ये था मेरा फाइव पॉइंट समवन के साथ रिश्ता। इसके बाद कॉलेज में जब गया तो अमृता प्रीतम जी का उपन्यास जेबकतरे पढ़ा था। ये भी छात्रों की कहानी है। इसमें भी इंजीनियरिंग के बच्चे पेपर चुराते हैं लेकिन इसमें आर्ट स्ट्रीम के बच्चे भी हैं और अमृता जी ने कई और पहलूओं को इसमें छुआ था। अगर आपने इसे नहीं पढ़ा तो एक बार इसे अवश्य पढ़िए। हाँ, उपन्यास थोड़ा डिप्रेसिंग था। मुझे अब कहानी के मुख्य अंश ही याद हैं क्योंकि सात आठ साल पहले पढ़ा था लेकिन इस कहानी में ज्यादतर छात्र जीवन में हार जाते हैं। जबकि चेतन भगत का उपन्यास एक खुशनुमा तरीके से खत्म होता। उसे पढ़कर आपको पात्रों के लिए ही नहीं अपने लिए भी उम्मीद मिलती है कि भाई जब इनके साथ सब ठीक हुआ तो अपने साथ भी होगा ही।

अब आते हैं दूसरे उपन्यास वन नाईट ऐट दी कॉल सेण्टर के ऊपर।  ये उपन्यास भी मैंने दोस्त से लेकर ही पढ़ा था। उस दोस्त को ये उपन्यास गिफ्ट के तौर पर मिला था। वो खेल कूद में अच्छा था तो स्कूल के एन्नुअल डे में उसे ये मिला था। वो तो पढ़ता नहीं था लेकिन मैंने जरूर पढ़ लिया। ये मैंने  ग्यारवीं के अंत या बारहवीं की शुरूआत   में  ही पढ़ा था।

यह उपन्यास विषय वस्तु के हिसाब से भी रोचक था। मेरे कई मित्र या मित्रों के मित्र (जो कॉलेज में थे ) उस वक्त कॉल सेण्टर में काम करने के लिए लालायित रहते थे। कॉल सेण्टर ऐसी जगह था जहाँ आप अगर अंग्रेजी बोल सकते थे तो आपको दस पंद्रह हज़ार कमाने में कोई नहीं रोक सकता था। और ये पैसे उस वक्त कॉलेज वालों के लिए काफी होते थे। मेरे एक दोस्त का कजिन ने तो एक नियम बना रखा था। वो कॉलेज में पढता था और घर से पैसे आते थे। लेकिन फिर भी वो पाँच छः महीने कॉल सेण्टर में काम करता था ताकि पैसे इकट्ठे कर सके और फिर बाकी छः महीने ऐयाशी करता था।  ऐसा जीवन मेरे लिए स्वर्णिम था। और मैं इधर काम करने वालों के विषय में ज्यादा जानना चाहता था।

इसलिए इस उपन्यास के प्रति आकर्षण था क्योंकि ये उन्ही कॉल सेंटरों में काम करने वाले युवाओं के विषय में था। इसमें किरदार भी ऐसे ही थे जिनके लिए कॉल सेण्टर एक वक्त गुजारने का साधन था। केवल नायक ही ऐसा किरदार था जिसके लिए ये कॉल सेण्टर में काम करना और इसमें तरक्की करना एक संजीदा मसला था।

इस उपन्यास में एक और बात रोचक थी। इसमें नायिका का नाम प्रियंका था और मैं उस वक्त इसी नाम की एक लड़की से एक तरफा आकर्षण का शिकार था। आज भी मैं उस लड़की के साथ संपर्क में हूँ और हम दोस्त भी हैं। उस वक्त उपन्यास पढ़ते हुए मैंने उसे नायिका और खुद को नायक के रूप में काफी बार देखा था। खैर, उपन्यास के बाकी किरदार भी जीवंत लगे थे। आर्मी से रिटायर्ड ऑफिसर का किरदार जो अपने पोते के लिए तड़पता है ने काफी प्रभावित किया था। उपन्यास के एक्सीडेंट वाले सीन  ने मुझे निराश नहीं किया था। मैं उस वक्त भी नास्तिक था तो जो एक्सीडेंट का सीन था उसमें लेखक के दिए विकल्प के हिसाब से मैंने भगवान् की जगह रिटायर्ड आर्मी ऑफिसर को सोच लिया था। (मैं रिटायर्ड आर्मी ऑफिसर इसीलिए लिख रहा हूँ क्योंकि मुझे उनकी रैंक अब याद नहीं है। वो कर्नल थे या मेजर थे ये मैं भूल गया हूँ।)

वर्षों बाद मैंने इस उपन्यास पर आधारित फिल्म देखी थी जिसने मुझे निराश किया था। उपन्यास के अंत में जो चेज सीक्वेंस था वो फिल्म में नहीं था या था तो उतना लम्बा नहीं था, जबकि वही उपन्यास की सबसे फ़िल्मी बात थी।  लेकिन उपन्यास मुझे अच्छा लगा था। किरदारों से मैंने जुड़ाव महसूस किया था।

इसके बाद मैंने जो तीसरा उपन्यास पढ़ा उस वक्त मैं बारहवीं के बाद एक साल ड्राप कर रहा था। ड्राप किया तो इंजीनियरिंग की तैयारी के लिए था लेकिन वो इतनी नहीं की थी। उपन्यास मैं एक बार मॉल में गया था तो खरीद लाया था। चेतन के उपन्यासों की बिक्री का एक कारण उनकी कीमतें भी था। उस वक्त ये उपन्यास ९५ रूपये में मिल जाते थे और इतना एक स्टूडेंट अफ्फोर्ड कर सकता था। बाकी के अंग्रेजी उपन्यास तो दो सौ से कम आते ही नहीं थे और इतना खर्चा न जेब उठा सकती थी और न ही घरवाले।

खैर, थ्री मिस्टेक्स ऑफ़ माय लाइफ मैं लाया और मुझे याद है उसी दिन(जिधर मैं रहता था उधर कमरे की आगे एक सीढ़ी थी जो ऊपरी मंजिल को जाती थी) सीढ़ी में बैठकर एक ही बार में पढ़ लिया था। लेखक को गुजरात से मेल आना और फिर कहानी का अनफोल्ड होना बड़ा रोचक था। कहानी के नायक ने मुझे प्रभावित किया था। उस वक्त मेरे लिए इंजीनियरिंग ही एक विकल्प था लेकिन पढ़कर मुझे लगा था कि ये नहीं भी हुआ तो कोई आफत नहीं आएगी। वो अलग बात है कि अंत में इंजीनियरिंग ही की। लेकिन एक नया दृष्टिकोण तो मिला था।

इन तीन पुस्तकों को जब भी मैं याद करता हूँ तो मैं ऐसे चेतन को पाता हूँ जिसने ऐसे विषयों को चुना जिन्हें अक्सर लेखक आम मानकर छोड़ देते हैं। मैंने अक्सर सुना है ये असली भारत है या वो असली भारत है लेकिन चेतन ने भी एक भारत दिखाया। जो हम जैसे आम लोगों का भारत था। जहाँ कुछ बच्चे थे जो एक टॉप के शिक्षण संस्थाने में जाकर वहाँ के हिसाब से अपने को ढालने की जद्दोजहद में लगे थे, जहाँ एक कॉल सेण्टर में काम करने वाले के लिए वो कॉल सेण्टर ही सबसे जरूरी था और उसको बचाना उसके लिए जीने मरने के बराबर हो गया था और जहाँ एक व्यापारी था जिसने इंजीनियर बनने की जगह व्यापारी बनने की सोची थी लेकिन इसी राह में उससे कुछ गलतियाँ हुई थी और वो अपना सब कुछ हार गया था।  प्यार, दोस्ती और पैसा अब उसके पास कुछ भी नही था। चेतन ने ऐसे लोगों की कहानी बोली थी जो हमारे आसपास थे। जो इतने आम थे कि अक्सर नज़रअंदाज कर दिए जाते थे और जिनमे मैंने और शायद मेरे जैसे कई युवाओं ने अपने आप को देखा था।

इसके बाद मैं कॉलेज में चला गया। उधर मैंने  आर के नारायण, अमृता प्रीतम, स्टेफेन किंगम, सिडनी शेल्डन को पाया। चेतन के और उपन्यास आये लेकिन मैं उन्हें खरीद नहीं पाया। ऐसा नहीं है कि मैं  उनको पढूँगा नहीं। हो सकता है पढूँ या हो सकता है न पढूँ।(मैंने जो किताबें पढनी है उनकी सूची इतनी ज्यादा है कि दो साल पहले
खरीदी किताबों को मैं इस साल पढ़ रहा हूँ।) लेकिन चेतन का एक विशेष स्थान तो रहेगा ही। इसलिए जब कोई उनकी किताबों की बुराई करते हुए उन्हें गाली देता है तो शायद कहीं दुःख भी होता है।

अब आप सोच रहे होंगे की ये लेख मैंने क्यों लिखा? तो सच मानिए मुझे भी नहीं पता। बस ऐसे ही उस दिन चलते हुए ख्याल आया तो लिख दिया। वैसे भी ब्लॉग इसी के लिए ही तो बनाया जाता है ताकि अपने ख्यालों को दर्ज किया जा सके। क्यों, है न?

2 टिप्पणियाँ

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  1. बढ़िया लिखा।
    जहाँ तक मुझे लगता है लोग चेतन भगत को उसकी कहानियों के बदले एक समान कहानियों के लिए गरियाते हैं।कहानी भी सुनी सुनाई होना और पात्रों में भी एकरूपता एक कारण हो सकती है।बाकी अपनी अपनी पसंद है ही सबकी।इसलिए ऐसा होता हो शायद।

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  2. मैंने उसकी तीन किताबें पढ़ी हैं और तीनों की कहानी कहीं भी एक जैसी नहीं है। हाँ युवाओं की कहानी जरूर है वो। सारे मुख्य पात्र युवा ही थे। जिनके कुछ सपने थे, कुछ आकांक्षायें थीं। बाद की पुस्तकों को समयाभाव के कारण नहीं पढ़ सका तो उनके विषय में नहीं कहूँगा।

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