माउंट आबू #4: सनसेट पॉइंट, वैली वाक

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मीट के फेसबुक इवेंट पेज से साभार 


पिछली पोस्ट में आपने पढ़ा कि हम नक्की झील से सनसेट पॉइंट के लिए निकल गये थे। कुछ लोग टोड रॉक और झील में बोटिंग कर के ही खुश थे। गुरु जी के पाँव में चोट थी तो सनसेट पॉइंट वो जा नहीं सकते थे। हमने उन्हें आने के लिए कहा तो उन्होंने अपनी असमर्थता जताई। हमने गाड़ी में जाने के लिए भी बोला लेकिन गेट के अन्दर फिर भी चलना पड़ता और वो अभी अपने पाँव में स्ट्रेस नहीं देना चाहते थे। इसलिए उन्होंने मना कर दिया। उनके साथ कुछ और लोग भी वापस होटल के लिए निकल गये। बाकी लोग सनसेट पॉइंट के लिए चल दिये।

झील से सनसेट पॉइंट तकरीबन एक डेढ़ किलोमीटर दूर रहा होगा। उधर जाने के लिए टैक्सी भी लगी थीं जो कि सैलानियों को उधर छोड़ने के लिए बुला रही थी। इसके इलावा घोड़ों पर भी उधर जाया जा सकता था। लेकिन मौसम चूँकि अच्छा था और हम घूमने ही आये थे तो हमने पैदल उधर जाने का निश्चय किया। हम कुछ कुछ बन्दों के समूह में चल रहे थे। कोई समूह आगे रहता तो कोई पीछे। अगर ज्यादा लोग हों तो अक्सर ऐसा हो ही जाता है। पहले मैं भी राकेश भाई ,अमीर सिंह जी और जीपी जी के साथ चल रहा था। साथ में शिव भाई भी थे शायद। इधर शायद इसलिए क्योंकि एक तो मैं ही खोया खोया रहता हूँ और दूसरा शिव भाई भी शर्मीले इंसान हैं। फिर एक बात ऐसी हुई कि मेरा फोकस जी पी सर के ऊपर गया। वो चलते चलते रुक गये और वापस होटल की तरफ जाने लगे। उन्होंने कारण बताया था लेकिन वो आप उन्ही से पूछे तो बेहतर। इस बच्चे को अपनी जान प्यारी है मालको।

फिर क्योंकि मैं और राकेश भाई तेज चलते हैं  तो हुआ ये कि कब मैं और राकेश भाई आगे को निकल गये हमे पता ही नहीं चला। अब हम आगे आगे चल रहे थे और बाकी लोग पीछे आ रहे थे । हम सनसेट पॉइंट के निकट पहुँचे। उधर सैलानियों की भीड़ थी। गेट के करीब ही टैक्सी उनको छोड़ रही थी। कुछ घोड़े वाले खड़े थे और कुछ पैदल ही चले जा रहे थे। कुछ हाथगाड़ी वाले भी नज़दीक थे जो लोगों को तीस तीस रूपये में हाथ गाड़ी में बैठा कर ऊपर छोड़कर आ रहे थे।

हम गेट की बगल में थोड़ा रुके। बाकी लोग दिख नहीं रहे थे। अब मुझे ऐसा याद आ रहा है कि शायद राकेश भाई ने शिव भाई को कॉल भी किया था और उन्होंने हमे आगे बढ़ते रहने को कहा था। हो सकता है ऐसा  न भी हो। मुझे अपनी याददाश्त पे इतना भरोसा नहीं रहा अब। खैर, उधर सामने गेट था। उसके पास लोग खड़े थे। मैंने राकेश भाई से कहा शायद हमे टिकेट लेकर अन्दर जाना होगा। उन्होंने कहा कि शायद टिकेट उन लोगों का जो गाड़ियों में और घोड़ों में बैठकर जा रहे थे। ऐसे ही शायद शायद  करके हम गेट से पार हो गये और किसी ने हमे रोका ही नहीं।

गेट के भीतर माहौल में एक तरह की भागमभाग सी लगी।  घोड़े वाले लड़के ऊपर से भागते हुए नीचे आते। हाथ गाड़ी वाले लोग अपने से दुगुना तिगुना भार गाड़ी में ऊपर की तरफ धकेलते हुए जा रहे थे। और कुछ गाड़ी वाले ऊपर से भागते हुए आ रहे थे।  घूमने की जगह में जैसी आराम का माहोल होना चाहिए। उधर ऐसा नहीं था। आपाधापी  माहोल में घुल मिल गयी थी। घोड़े वाले लोग आपस में प्रतिस्पर्धा कर रहे थे। जो जितनी जल्दी नीचे आता उतना ज्यादा यात्री ढोता और उतना पैसे कमाता। इनका तो फिर भी सही था कि भार घोड़े ने उठाना था और उनकी ज्यादा मेहनत खाली वापसी की दौड़ की थी। लेकिन गाड़ी वाले कितनी मेहनत कर रहे थे इसका अंदाजा हम आप शायद ही लगा सके। अपने से दोगुना वजन चढ़ाई में धकेलना आसान काम नहीं है साहब। जीवन यापन का संघर्ष उधर साफ़ झलकता था। मैंने जब हट्टी कट्टी महिलाओं को उस गाड़ी में बैठे देखा तो थोड़ा अजीब लगा। बुजुर्गों और बच्चों का तो एक बार सोच सकता हूँ कि बुर्जुर्ग चढ़ नहीं सकते इसलिए और बच्चे नोवेल्टी के कारण इस पर बैठे होंगे। लेकिन वो महिलाएं शायद आलस के कारण ही बैठी होंगी। लेकिन फिर सोचा कि हो सकता है उन्हें कुछ दिक्कत हो। या ये भी सोचा कि उनके बैठने से ही गाड़ी वाले लोगों की कमाई भी हो रही है। तो उनका बैठना भी जायज था तो फिर मुझे अजीब क्यों लगा।  अगर मैं भी बैठता तो एक और के पैसे बन जाते। फिर क्या मन में दया होने के कारण न बैठना सही था या बैठकर उसकी कमाई कराना सही था। मन में अक्सर ऐसे विचार आते हैं तो समझदार लोगों की तरह मैं उन्हें परे धकेल देता हूँ। इन्हें भी पूरी ताकत के साथ धकेला और भावनाओं को नज़रअंदाज करने की कोशिश की।

  सनसेट पॉइंट के रास्ते का एक चित्र। मैंने इधर कोई फोटो नहीं खींची थी। गूगल से ढूंढकर ये फोटो निकाली। स्रोत 

इसी दौरान मन में एक ख्याल आया कि गुरु जी आते तो उन्हें इन्ही गाड़ी में बिठाकर ले जाते। फिर इस चीज की कल्पना की कि गुरूजी गाड़ी में बैठे कैसे लगते? मन में जो चित्र उभरा उसमे गुरुजी गाडी बैठे हैं और जैसे गाडी वाला भाई धक्का लगा रहा है गुरु हाथ हिलाते हुए wheee....  whoo....   चिल्लाते जा रहे हैं एक दम बच्चे की तरह। सच में मजेदार दृश्य होता जो उनके व्यक्तिव और उम्र के कारण और मजेदार लगता। अगर ऐसा होता तो हम सभी हँसते हुए लोट पोट हो रहे होते। ये सोचते हुए हँसी सी आने वाली थी लेकिन उसे जब्त किया क्योंकि साथ में राकेश भाई थे। वो सोचते किस पागल के साथ चल रहा हूँ जो खुद ही हँसे जा रहा है। मेरे मन में ऐसे मज़ेदार ख्याल आते रहते हैं। इनकी वजह से कई बार मुसीबतों में भी फँसा हूँ। ऐसा ही एक किस्सा याद आता है। सुनोगे। चल छोडो। अच्छा, जिद करते हो तो भाई सुनाते हैं।

छोटे में अलादीन नाम का वीडियोगेम खेलते थे जिसमें जब वो बिल्डिंग से कूदता था तो हमारे पास विकल्प होता था कि एक बटन कॉम्बिनेशन दबाएं और अलादीन के हाथ में एक पैराशूट सा आ जाता था और वो हवा में  तैरते हुए सा उतरता था। अगर आपने ये वीडियो गेम खेला हो तो  ध्यान होगा। वैसे गूगल बाबा ने वो चित्र मुहैया करवा दिया है। ऐसा दिखता था वो और मज़े में झूलते झालते नीचे पहुँचता था।
चित्र आभार गूगल 

खैर,तो बात उस वक्त की जब कॉलेज के दूसरे वर्ष में रहे होंगे। हमारी एक लेक्चरार थीं। एक बार वो कक्षा में दाखिल हुई तो उन्होंने लड़कियों का एक घाघरे जैसा सूट पहना था। उस सूट को देख कर न जाने किधर से मेरे मन में ये ख्याल उभरा कि वो एक उल्टा पैराशूट था और मैम अगर किसी बिल्डिंग से कूदती तो वो पैराशूट की तरह काम करने लगता।और मैम ऊपर दिखे अलादीन की तरह  बिल्डिंग से तैरती हुई आ रही हैं। बस इसमें उनका सूट पैराशूट था। ये ख्याल उनको देखने के एक सेकंड से भी कम वक्त में मन में आया और मेरी हँसी छूट गयी। बगल में बैठे प्रशांत को भी पता नहीं था मैं क्यों हँसा। अब हुआ ये क्योंकि मैं दरवाजे वाले कॉलम में सबसे आखिर में बैठा था तो मैम ने मुझे हँसते हुए देख लिया। उन्हें पता लग गया कि शायद मेरी हँसी का कारण वो ही थीं। और उन्होंने मुझे सबसे पीछे जाकर खड़े होने की सज़ा दी। क्योंकि मेरी गलती थी ही इसलिए मैं भी चुपचाप खड़े हो गया। फिर एक डेढ़ हफ्ते तक क्लास में मेरे ऊपर उनकी गहरी नज़र रहती थी। क्लास लेते हुए नोट्स भी चेक होते थे। और सवाल भी पूछे जाते थे।

ये एक लौता किस्सा नहीं है जिसमे मेरी कल्पना और हँसी ने मिलकर मुझे मुसीबत में डाला है। ऐसे कई किस्से हैं। अक्सर डांट पड़ती थी तो ऐसा अक्सर होता था।  खैर, सब सुनाने बैठा तो पोस्ट इतनी लम्बी जाएगी कि गूगल भी बोलेगा की मेरे दिए होस्टिंग स्पेस का नाज़ायज़ फायदा मत उठाओ,ठाकुर। अब वापस सनसेट पॉइंट की तरफ चलते  हैं।

हम ऊपर की तरफ जा रहे थे। रास्ता चढ़ाई वाला था लेकिन ऐसा नहीं था कि जाया न जा सके। हमे चढ़ने में ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी।  रास्ते में मुझे एक बोर्ड भी दिखा। उसमे वैली वाक करके कुछ लिखा था और ऊपर जाने के लिए रास्ता था। इसने मुझे आकर्षित किया। मैंने राकेश भाई को वो दिखाया और कहा कि वापस आते समय इस पर भी जायेंगे तो उन्होंने भी हामी भरी। वो हर जगह चलने को तैयार रहते हैं। ऐसे लोग मुझे पसंद हैं।

फिर हम घूमते-घामते अपने गंतव्य स्थल तक पहुँच ही गये। उधर मैंने देखा तो लोग ही लोग थे। कहीं भी तिल रखने तक की जगह नहीं दिख रही थी। लोग शायद ज्यादा अनुभवी थे क्योंकि सभी ने अपनी अपनी जगह हथिया ली थी। हम थोड़ी देर उधर रुके लेकिन भीड़ में रहने का कोई मतलब नहीं था। भीड़ और शोर मुझे वैसे भी इतना पसंद नहीं आता है।  सूर्य अस्त होने में अभी वक्त था। मैं इधर उधर देखने लगा। सनसेट पॉइंट के पीछे की तरफ मुझे एक मंदिर सा दिखा। जहाँ सनसेट पॉइंट पे तिल रखने की जगह भी नहीं थी उधर ही वो मंदिर और उसका प्रांगण खाली पड़ा था। हमने उधर जाने का निर्णय किया। उधर कम से कम भीड़ से तो दूर होते।

हम नीचे को उतरे और मंदिर के निकट पहुँचे। मंदिर में कुछ देवियों की फोटो लगी थी। हम अंदर नहीं गए लेकिन दूर से ही पता लग रहा था कि किसी देवी का था। पापसा माता का पोस्टर उधर लगा हुआ था  मैं यही माँ रहा हूँ कि उनका ही होगा। इसके इलावा एक बात जो नोट करने लायक थी वो था उधर की एक चट्टान। वो किसी जीव की तरह लग रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे कोई विशाल काय जीव अपने शेल के अंदर सो रहा हो।
उसे देख के लग रहा था जैसे वो देवी की सुरक्षा के लिए रखा गया हो। कोई दुश्मन आये तो एक दम नींद से जागेगा और दुश्मन के परखच्चे उड़ा देगा। मेरी सोच अपनी दिशा ले रही थी।  इससे पहले कि मैं अपने कल्पना के सागर में गोते लगाने लगता मैंने  अपने आपको लाकर यथार्थ में पटका। मैंने राकेश भाई से पूछा अन्दर चलना है तो उन्होंने मना कर दिया। मैं भी अक्सर मंदिर में तभी जाता हूँ जब वो बड़ी खूबसूरती से बना हो और उस वास्तु-कला का मैं आनन्द उठा सकूं। इधर तो एक विक्राल प्रहरी थी जिससे मुलाक़ात की मुझे कोई इच्छा नहीं थी। इसलिए हमने बाहर से ही कुछ देर फोटोग्राफी की और उधर  थोड़ा वक्त बिताया।



मंदिर का फ्रंट गेट 

 चट्टान जो किसी विशालकाय जीव की तरह दिख रही थी। 
जब हमे लगा कि बाकि लोग भी आ गये होंगे और सूर्य अस्त होने वाला होगा तो हम ऊपर सनसेट पॉइंट की और चढने लगे। हम रास्ते में जा रहे थे कि राकेश भाई एक दम से रुक गये। मैंने पूछा क्या हुआ तो उन्होंने अपना पैर ऊपर उठाकर जूते से काँटा निकाल कर दिखाया। उधर पेड़ पौधे ज्यादा थे और गर्मी थी तो काँटे वगेरह भी जमीन पर बिखरे हुए थे। लेकिन जूता चीरकर कोई अन्दर चला जाए ये हमने नहीं सोचा था। फिर देख संभल कर चलने लगे और बिना छिदे ऊपर तक पहुँच ही गये।
सूर्यास्त देखने उमड़े लोग 

जब तक ऊपर पहुँचे तो बाकी एसएमपियन्स भी आ चुके थे। हम एक जगह एकत्रित हुए और सूर्य के अस्त होने का इन्तजार करने लगा। सूर्य क्षितिज में धीरे धीरे उतर रहा था। सभी लोग फोटो भी खींचते जाते और टकटकी लगाये उधर देखते रहते। फिर सूर्य अस्त होने का मनोरम दृश्य दिखा। एक पल को सूरज उधर था और एक पल वो ये जा वो जा। सूर्य अस्त होने का वक्त 7 बजकर दस मिनट के करीब रहा होगा।  अब जब सूर्य ही डूब चुका था तो सनसेट पॉइंट पे रहने का फायदा नहीं था। सभी लोग उधर से धीरे धीरे करके उतरने लगे।

सूरज को पकड़ने की असफल कोशिश। पिक राकेश भाई ने खींची । 

टिकिया सा सूरज आखिर हाथ में आ ही गया 



डूबता सूरज। आज के अपने आखिरी पड़ाव पे। 




सनसेट पॉइंट की सेल्फी : (आगे से ) अल्मास भाई, संदीप अग्रवाल जी, पुनीत भाई, कुलदीप भाई, राजीव सिंह जी, शिव भाई,दीपक भाई,अमीर सिंह जी,वीर नारायण भाई, राकेश भाई और मैं  
हम दो तीन मिनट में ही नीचे उतर आये।  उतरते हुए मैंने शिव भाई से टिकट के विषय में पूछा तो उन्होंने कहा कि उन्होंने ११ बन्दों के टिकेट ले लिए थे। उन्होंने हमसे पुछा कि हमने तो नहीं लिए तो मैंने कहा हम तो पहले ही बिन टिकट घुस चुके थे। फिर बात चीत रुक गयी और उतरने पे ध्यान दिया जाने लगा क्योंकि रास्ता ही ऐसा था। हम सब नीचे पहुँचे तो पता चला कि हमारे साथ ठाकुर महेश जी भी थे लेकिन ऊपर सनसेट पॉइंट की भीड़ में कहीं खो गये थे। ये दिन में दूसरी बार हो रहा था जब वो पीछे रह गये थे। हम उनका इन्तजार करने लगे। उन्हें फोन मिलाया गया और बोला गया कि हम सुलभ शौचालय के पहले जो सोडा और नीम्बू पानी वाला खड़ा है उधर हैं। उधर सिग्नल कम थे तो फोन भी कट रहा था। हमे पता नहीं था कि उन्होंने दिशा निर्देश ठीक से सुने की नहीं। अब हमारा काम भीड़ में से उनको ढूंढना था। हम नीम्बू सोडा पीते होते आते वे यात्रियों को देखते और उनके होने का अंदाजा लगाते। इतने में मुझे वो दिख गये। हाथ हिलाकर उन्हें इशारा किया और आने को कहा। उन्होंने भी देख लिया और वो हमारी तरफ बढ़े। फिर हम साथ साथ नीचे को बढ़ने लगे।

जब वैली वाक वाला रास्ता निकट आया तो मैंने कुलदीप भाई से पूछा कि हम उधर भी जा रहे हैं। उन्होंने असमंजस से मेरी तरफ देखा और बोला खाली आप जाओगे न। मैंने जब हाँ बोला तो उनके चेहरे के राहत के भाव देखने लायक थे। ऐसा लगा जैसे सोच रहे हो जान बची।  मैंने फिर उनसे कहा कि हम उन्हें होटल में मिलेंगे। उन्होंने ठीक है कहा।


बाकी लोग होटल की तरफ चल दिए। और अब राकेश भाई, वीर नारायण भाई और मैं वैली वॉक के तरफ चढने लगे। उधर की तरफ जो रास्ता जाता है उधर एक साइन बोर्ड था जिसमे निर्देश थे कि उधर जाने का सुरक्षित समय प्रातः नौ बजे से सांय 5 बजे का है। अभी सात बज रहे तो हमने थोड़ा ही एक्स्प्लोर करने की सोची। ऊपर जाकर देखते कैसा बनता। रास्ता ठीक ठाक था। उधर इक्के दुक्के लोग थे जो नीचे आ रहे थे। हम रास्ते में चलने लगे और ऊपर पहुँचकर एहसास हुआ कि ये रास्ता काफी घने जंगलों के मध्य से होकर गुजर रहा था। साढ़े सात का वक्त था और अन्धकार होने वाला था। हमारा खलीफा बनने का कोई विचार नहीं था। हमने थोड़ा पेड़ पौधों को यूरिया सप्लाई किया और वापस आकर रास्ते के बगल में मौजूद एक बड़े पत्थर पर बैठने का निर्णय लिया।
ऊपर को जाता रास्ता 

इन्हीं पत्थरों में से एक में बैठकर हमने फुर्सत के कुछ लम्हे गुजारे थे 

घाटी की तरफ जाता रास्ता। अँधेरा  होने वाला था और जंगल घना लग रहा था  इसलिए हम इससे आगे नहीं गये। 

सामने का दृश्य। सनसेट पॉइंट से आते लोग। 

हम पाँच दस मिनट उधर बैठे रहे। कुछ देर बाद हमने देखा कि पत्थर के ऊपर काफी बड़े चींटे घूम रहे थे। आसार ऐसे दिख रहे थे कि वो हमारे ऊपर भी चढ़ने का मन बनाकर आये हों। हमने अब वापस होटल जाने का मन बना लिया। चीटों से युद्ध करने की कोई मंशा हमारे अन्दर नहीं थे। उन्हें उनका राज्य सौपा और नीचे उतरने लगे। अब हमे वापस होटल जाना था जहाँ शाम की महफ़िल लगनी थी।

क्रमशः
पूरी ट्रिप के लिंकस
माउंट आबू मीट #१: शुक्रवार का सफ़र
माउंट आबू मीट #२ : उदयपुर से होटल सवेरा तक
माउंट आबू  #3 (शनिवार): नक्की झील, टोड रोक और बोटिंग
माउंट आबू #4: सनसेट पॉइंट, वैली वाक
माउंट आबू मीट #5: रात की महफ़िल
माउंट आबू मीट #6 : अचलेश्वर महादेव मंदिर और आस पास के पॉइंट्स

2 टिप्पणियाँ

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  1. बहुत सारे दोस्त एक साथ किसी भीड भरे स्थल पर जाये तो एक आध ऐसा निकल ही आत है जो तलाश करना पड जाता है।
    मथुरा यात्रा में हमारे साथ ऐसा हो चुका है लेह वाली बाइक यात्रा में तो एक रात अलग बितानी पडी थी।

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    उत्तर
    1. जी, सही कहा। हमारे साथ तो अक्सर ऐसा होता है।कोई न कोई छूट जाता है क्योंकि कोइ तेज चलता है कोई हल्के। फिर उनके आने का इंजतार करो। लेकिन इसी से यात्रा और यादगार भी बनती है।

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