क़ुतुब मीनार : अश्विन भाई के साथ

रविवार 18 जून,2017



ऐसा नहीं है कि मैं क़ुतुब मीनार पहले नहीं गया हूँ। लेकिन मेरा मानना है जिस प्रकार आप एक किताब को दूसरी बार नहीं पढ़ सकते, क्योंकि एक बार पढ़ने के बाद आपके अवचेतन मन मे वो काफी कुछ बदल देती है, उसी प्रकार आप एक जगह दूसरी बार नहीं जा सकते। पढ़ना तो फिर भी ऐसी गतिविधि है जहां आप अकेले उस अनुभव को लेते हैं इसके बनिस्पत घूमने में कई वेरिएबल्स होते हैं। आप अगर कहीं दोबारा जाते है तो पाएंगे जिस वक्फे में आप उससे दूर रहे स् वक्फे में आपके और उस जगह के अंदर काफी कुछ जुड़-घट गया होता है। अगर ये वृद्धि  प्राकृतिक संपदा में होती है तो मन मे खुशी की लहर उठती है लेकिन अक्सर जब ऐसा नहीं होता और मौजूदा प्राकृतिक संपदा में आप कुछ घटाव महसूस करते हैं तो मन दुखी हो जाता है। जगह के इलावा आप किसके साथ उस जगह को देखने गए थे ये भी आपके घूमने के अनुभव को अलग बनाता है। कहने का लब्बोलबाब ये हुआ कि मेरी समझ में एक जगह को दूसरी बार देखना नामुमकिन है। एक बार डॉन, जिसकी तलाश सोलह मुल्कों की पुलिस को है, पकड़ में आ सकता है लेकिन आप दोबारा उसी जगह पहुँचे ये नहीं हो सकता। आप इस विषय में क्या सोचते हैं? मुझे बताईयेगा। 

अब आते हैं वृत्तान्त पर।

मेरा अश्विन भाई के साथ उनके गाँव जाने का प्लान काफी दिनों से चल रहा था। हमेशा सप्ताहंत का प्रोग्राम बनता था और उस वक्त ऐसा कुछ न कुछ हो जाता था  कि प्रोग्राम कैंसल करना पड़ता था। इस  सप्ताहंत भी ऐसा ही हुआ। मैंने इस  हफ्ते की शुरुआत में ही अश्विन भाई को बता दिया था कि इस हफ्ते कुछ भी हो मैं उनके साथ चलूँगा। मेरे तरफ से प्रोग्राम कैंसिल नहीं होगा। फिर गुरूवार की सुबह को मुझे किसी काम के लिए इंदौर को निकलना पड़ा। लेकिन मेरी वापसी उसी दिन की थी तो शुक्रवार की मुझे कोई दिक्कत नहीं थी। वैसे एक बात पहले ही हो चुकी थी। अश्विन भाई की टिकेट बुक हो चुकी थी। मेरा ख्याल उनके दिमाग से निकल गया था क्योकि उनकी टिकेट किसी और ने करवाई थी। जब मैंने उनसे बात की तो हमने यही निर्णय लिया कि मैं जनरल का टिकेट लेकर स्लीपर में चढ़ जाऊँगा और फिर फाइन दे दूंगा। उनकी तो सीट हो ही रखी थी तो बैठने में कोई परेशानी नहीं होती। अब मुझे शुक्रवार का इन्तजार था। 

शुक्रवार आया और मुझे थोड़ा आलस आने लगा। मन में आ रहा था कि प्रोग्राम कैंसिल कर दूँ। लेकिन फिर ऐसा हर यात्रा के वक्त होता है लेकिन इस आलस को पार करके यात्रा पे निकलो तो मज़ा दोगुना हो जाता है।  इसलिए  मैंने अपने तरफ से प्लान कन्फर्म ही रखा। 

लेकिन  होनी को कुछ और ही मंजूर था। शुक्रवार का प्लान कैंसिल हुआ क्योंकि अश्विन भाई को जरूरी काम आ गया था। इसके बाद योजना शनिवार के सुबह जाने की बनी लेकिन  आखिरकार उसे भी मुल्तवी ही करना पड़ा। अब मेरे पास शनिवार खाली था तो मैंने इसमें कपड़े वगेरह निपटाए और अपनी चोटिल कमर को आराम दिया। जब प्रोग्राम कैंसिल हो रहा था तो अश्विन भाई ने पूछा कि सप्ताहंत में क्या करोगे तो मैंने बता दिया था कि यही दिल्ली में ही कहीं घूम लूँगा। तो उन्होंने भी साथ में आने के विषय में बोला। तो मैंने कहा कि चलो आप जिधर रहते हो उधर के ही आसपास ही घूमने जाते हैं। मैंने अक्षरधाम मंदिर नहीं देखा था तो सोचा उधर ही घूमा जाएगा। उन्होंने भी इसे नहीं देखा था तो उन्होंने भी इधर जाने की हामी भर दी। तो अब ये तय था कि रविवार कि कहीं न कहीं तो जाया जायेगा। 

रविवार की सुबह को मेरी आँख सात - साढ़े सात बजे ही खुली। मैंने चाय वगेरह बनाई और ब्लॉग पोस्टस पे काम करने लगा। नौ बजे करीब तक मैं चाय की चुस्की लेता जा रहा था और ब्लॉग पे काम कर रहा था। इसी दौरान उन्हें सन्देश भेजा कि कब चलोगे अक्षरधाम। मेरा मन शाम को जाने का था। लेकिन उनका जवाब आया कि एक दो घंटे में चलते हैं। मैं थोड़ा हड़बड़ा गया। मैंने चाय का कप किनारे रखा और उनसे कहा कि अभी तो उठकर खाली चाय का दौर चल रहा है। तो उन्होंने कहा एक दो घंटे तो हैं नाश्ता कर लो और मिल लो। मैंने देखा नौ बज रहे थे तो सोचा कि ग्यारह बजे करीब इधर से निकलूँगा। यही बात मैंने उन्हें बताई।  पोस्ट जितनी लिखी थी उतनी लिखी और उसे सेव किया। फिर नाश्ता बनाने में जुट गया। नाश्ते में अंडे के भुर्जी और चाय करने की सोची। उसकी तैयारी की और नहाने चला गया। नहाने जाने से पहले चाय का पानी उबालने के लिए छोड़ गया। नहाकर आया तो चाय उबल चुकी थी। उसे किनारे रखा और  फिर भुर्जी बनाई।  भुर्जी तैयार थी तो अब दोबारा चाय का पहले से उबला पानी चढ़ाया तो दो मिनट में वो भी तैयार। (जब एक चूल्हे वाला इंडक्शन हो तो ऐसे ही काम करना पड़ता है।) अब चाय और भुर्जी से पेट भरा। तब तक ग्यारह बज गये थे। मैं निकल रहा था। उस वक्त मेरे फ़ोन में नेट भी एक्टिवेट नहीं था। मैं अपने पीजी के वाईफाई से एक्टिव था। मैंने अश्विन भाई को बोला कि मैं निकल रहा हूँ और चूँकि नेट एक्टिव नहीं है तो समय समय पर कॉल करता रहूँगा। उन्होंने कहा ठीक है। 

गुरूवार को मौसम थोड़ा ठंडा  हुआ था तो उम्मीद कर रहा था कि गर्मी कम होगी और मौसम में यही ठंड बरक़रार रहेगी। जब निकला था तो हल्की सी बदली थी लेकिन  ऐसा लग ही रहा था कि वो सूरज महाशय को ज्यादा देर तक छुपाकर नहीं रख सकेगी। क्योंकि गर्मी बढ़ने लगी थी।  लेकिन उम्मीद फिर भी थी। उम्मीद करने में क्या जाता है। ऑटो से बैठकर मैं एम जी मेट्रो बैठा। फिर प्लेटफार्म पर चढ़ा और अश्विन भाई को कॉल किया। उन्हें कॉल करके बताया कि मेट्रो में हूँ और राजीव चौक पहुँच कर कॉल करता हूँ। पहले मैं केन्द्रीय सचिवालय उतरना चाहता था लेकिन उन्होंने ही सलाह दी कि दो तीन ट्रेन बदलोगे तो उतना ही वक्त लग जायेगा। मेरे को ये बात जची और मैंने इस पर अमल करने की सोची। 

अब मैं ट्रेन में चढ़ चुका था। ट्रेन की एसी शरीर को राहत दे रही थी। मैंने अपना किंडल निकला और रेजीना बेथोरी का लघु उपन्यास लाजलो खोल दिया। मैं बहुत दिनों से इसे पढने की सोच रहा था तो सोचा इस सफ़र में इस इच्छा को पूरी करूँ। नोएल, किम और बेन तीन दोस्त हैं जो कि रोड ट्रिप पर निकले थे। कुछ दिनों में किम का जन्मदिन था और उसके दोस्तों ने उसके लिए कुछ सरप्राइज पार्टी प्लान करी थी। लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था। मैं उनके साथ उनके सफ़र में शरीक था इसलिए मुझे पता ही नहीं लगा कि कब राजीव चौक आ
गया। मैंने उनकी कहानी को थोड़ा पॉज दिया और राजीव चौक में उतरा। मैं ऊपर चढ़ा और नॉएडा की तरफ जाने वाली मेट्रो का इन्तजार करने लगा। मैंने उन्हें 11:32 को कॉल करी होगी। जब रूम से निकला था तो उन्होंने बता दिया था कि वो पैतालीस मिनट में अक्षरधाम पहुँच जाएँगे। मेरे को तो वक्त लगना था। मैं 12:24 के करीब राजीव चौक था और मैंने उन्हें इस विषय में फोन करके इत्तला कर दी। मैंने कहा मैं दस पन्द्रह मिनट में ही अक्षरधाम में होऊंगा। उन्होंने भी कहा कि वो उस वक्त तक पहुँच जायेंगे। 

इतने में मेट्रो आई और मैं उस पर चढ़ गया। मैंने अपनी किताब दोबारा खोल दी। कथानक तेज रफ़्तार से भाग रहा था। नोएल, किम और बेन एक घर में घुसे थे जो बाहर से तो खाली दिख रहा था लेकिन उसके अन्दर कोई था। उधर उन्हें कई ऐसी चीजें भी मिली थी जिससे ऐसा लगता था जैसे उधर काले जादू का प्रयोग किया जा रहा था। मैं इसी में खोया हुआ था कि अक्षरधाम भी आ गया। अक्षरधाम से पहले एक रुचिकर वाक्या हुआ। उधर एक परिवार था जिसमे औरतों की संख्या ज्यादा थी। उन्हें उससे एक स्टेशन पहले उतरना था लेकिन वो इतने अन्दर बैठे हुए थे कि जब तक दरवाजे तक पहुचंते तब तक दरवाजा बंद हो गया था। वो घबराए न इसलिए उन्हें सलाह दी कि अगले में उतर जाओ और वापस इधर की तरफ आ जाओ। उनके चेहरे से चिंता की लकीरे गायब हो चुकी थी। अक्सर भीड़ भाड़ में स्टेशन छूट जाए तो आदमी बड़ा चिंतित हो जाता है। ऐसे लगता है जाने क्या हो गया। जबकि ये उतनी बड़ी बात भी नही होती।  वो अगले स्टेशन यानी अक्षरधाम का इन्तजार करने लगे।


अक्षरधाम आया तो वो भी उतरे। मैं नीचे को चले गया और वो लोग शायद दूसरे तरफ जाने के लिए चले गये। मैं गेट से बाहर आया और अश्विन भाई का इन्तजार करने लगा। मैंने उन्हें कॉल 12:46  पे की। उन्होंने  पूछा किधर हो तो मैंने कहा मैं तो एग्जिट कर गया। उन्होंने कहा वो भी आ रहे हैं और निकलने वाले हैं। मैंने पूछा किधर हो तो तभी वो मुझे दिख गये। हम मिले। हेल्लो हाई हुई  और फिर नीचे उतर गये। हम काफी दिनों बाद मिल रहे थे। मेट्रो से अक्षरधाम ज्यादा दूर तो नहीं था इसलिए पैदल ही उसके तरफ निकल गये। अब गर्मी बढ़ गयी थी। मैंने अपना चश्मा  निकाल दिया। इससे काफी आराम पहुँचता है। और हम अक्षरधाम की तरफ बढ़ गये। दूर से ही भीड़ काफी लग रही थी। 


अक्षरधाम की तरफ जाते हुए 
इन गाड़ियों की भीड़ ने ही हमे सचेत कर दिया था 


हम उधर पहुँचे तो हैरत में थे। जितना मैंने सोचा हमे उससे कई अधिक पापड़ बेलने पड़ते अगर अन्दर जाना था। पहले तो सामान चेक हो रहा था। उससे पार हुए। फिर हमे लाइन में लगना था जहाँ सारा इलेक्ट्रॉनिक सामान जमा करवाना था। चिलचिलाती धूप और मील भर लम्बी लाइन। अश्विन भाई ने पहले ही कहा था कि भीड़ बहुत होगी। अब हम साक्षात इस भीड़ को देख रहे थे। मैंने अश्विन भाई की तरफ देखा और पूछा कि सच में चलना है तो उनका जवाब भी न ही था। मैंने कहा भीड़ कम होती तो एक बार सोच भी लेते लेकिन इतनी भीड़ में कौन जाए।

मैंने उनसे पूछा कुतब मीनार चलोगे तो उन्होंने कहा हाँ वो ठीक है। उधर इतनी भीड़ भी नहीं होगी और पंक्ति में जयादा खड़ा नहीं होना पड़ेगा। और हम मेट्रो की तरफ चलने लगे। मैंने उनसे पूछा क़ुतुब मीनार देखा है तो उन्होंने मना कर दिया। मेरा कई दिनों से महरौली पुरातत्व पार्क देखने का मन था। ये क़ुतुब मीनार के नज़दीक है तो सोचा कि पहले मीनार देख लेंगे और फिर पार्क देख लेंगे। अब हम वापस मेट्रो की ओर मुड़ गये। अक्षरधाम में  भीड़ देखकर इतने सकते में आ गये थे कि मुझे उस वक्त तस्वीर निकालने की भी नहीं सूझी। मैं बस उधर से बाहर जाना चाहता था। 

हम चल रहे थे तो अश्विन भाई ने बोला कि हम भारतीयों को लाइन  में खड़े होने की आदत हो गयी है। मैंने कहा मजबूरी है साहब। इतने लोग पैदा कर चुके हैं कि भीड़ और लाइन तो होनी ही है। फिर ऐसे ही डिस्कशन होने लगा। अश्विन भाई से मिलना इसीलिए भी अच्छा लगता है। उनके साथ कई विषयों पर बातचीत हो सकती है तो रास्ता आराम से कटता है। बातों का सिलसिला लाइन से शुरू हुआ और मेट्रो आते आते कृषक विकास टैक्स तक पहुँच गया था। मैंने कहा एक दो दिन पहले ही मुझे इंदौर जाना पड़ा। टिकेट लिया तो उसमे से कुछ पैसा कृषि कल्यान टैक्स के नाम पर काटा गया। ऐसे ही न जाने कितना पैसा काटा जा रहा है। एक आम आदमी अपना योगदान इस तरह से देता है। लेकिन वो पैसा कटने के बावजूद जिनके लिए कट रहा है उनके पास न पहुंचे तो दुःख तो होगा ही। अश्विन भाई भी इससे सहमत थे। उनके अनुसार ये पैसा इफ्को जैसी कंपनियों को कर्ज देने के लिए इस्तेमाल होता है और बेचारा किसान उसके नाम से काटे जारे पैसे से लाभान्वित होने से बच जाता है। उन्हें ऐसे मामलो में ज्यादा ज्ञान है तो उनके विचार सुनने को मैं हमेशा ही उत्सुक रहता हूँ। ऐसे ही बात करते करते स्टेशन आ गया। हमने अपनी चेकिंग वगेरह कराई और राजीव चौक के लिए मेट्रो पकड़ी। मेट्रो में भी ऐसे ही बातचीत होती रही और पता ही नहीं लगा की कब राजीव चौक आ गया।

फिर हम राजीव चौक पे उतरे और नीचे हुडा की तरफ जाने वाली मेट्रो (येलो लाइन) की तरफ बढ़ गये। हमारा अगला गंतव्य क़ुतुब मीनार था। मैं एक बार उधर पहले जा चुका था। पहले अपने बड़े भाई के साथ गया था इसलिए मुझे इतना तो पता था कि मेट्रो से उधर जाना बहुत आसान है। स्टेशन से उतरने पर हमे ऑटो मिल जाता है।

 हम हुडा मेट्रो स्टेशन जाने वाली ट्रेन पर चढ़े और फिर बातचीत का सिलसिला चलने लगा। ऐसे ही यहाँ वहां की बात हुई। जॉब वगेरह की बात निकली तो अश्विन भाई ने खुशखबरी भी दी की उनका दो जगह सिलेक्शन हो गया है और वो ये चुनाव करना है कि आखिर किधर जायेंगे। ये जानकर मुझे ख़ुशी हुयी। ऐसे ही बातचीत चलती रही और आखिरकार क़ुतुब मीनार मेट्रो स्टेशन भी आ गया।

हम इधर उतरे और मेट्रो से बाहर निकले। गेट से बाहर ही निकले थे कि एक ऑटो वाले भाई पास आ गये। उन्होंने पूछा कि क़ुतुब मीनार जाओगे तो मैंने कहा हाँ। तो फिर उन्होंने दूसरा सवाल दागा कि प्राइवेट या शेयरिंग तो हमने शेयरिंग बोल दिया। अगर आप अपना ऑटो करना चाहते तो वो पचास रूपये में आपको पहुँचा देंगे और अगर साझे में जाना चाहते हो तो दस रूपये में ही मामला निपटा लिया जायेगा। आपके ऊपर निर्भर होता है कि कैसे जाना है। हमने दस रूपये में मामला निपटाना ही सही लगा। हमने यही बात उन्हें बोली तो उन्होंने एक तैयार ऑटो की तरफ इशारा कर दिया। उसमे पहले से दो सवारी थी। हम उसमे एडजस्ट हुए और ऑटो निकल पड़ा क़ुतुब मीनार  की ओर। रस्ते में मैंने ऑटो वाले भाई से महरौली पुरातत्व पार्क के विषय में पूछा तो उन्होंने कहा वो तो मेट्रो स्टेशन के नज़दीक है। मैंने मन ही मन में सोच लिया कि चलो आज ये भी कर लेंगे। कुल पाँच-दस मिनट में हम क़ुतुब मीनार पे थे।

हमने पहले टिकेट घर ढूँढा। भीड़ भाड़ तो इधर भी थी लेकिन इतनी नहीं कि टिकेट मिलने में घंटे लग जाते। उधर तीन चार काउंटर थे। मैं एक में लग गया और अश्विन भाई एक में लग गये।

उन्होंने बोला:  मैं लगा हुआ हूँ। तुम बैठ जाओ।
मैंने कहा:  दोनों लगते हैं। जिसका नंबर पहले आएगा वो ले लेगा।
इस पर उन्होंने सहमति जाहिर की।
क़ुतुब मीनार में जाने के लिए टिकट घर के बाहर पंक्तिबद्ध पर्यटक 

अब हम दोनों अपनी-अपनी लाइन में लगे हुए थे। मेरा ये आईडिया सफल रहा क्योंकि मेरा नंबर पहले आ गया।मैंने टिकट ले लिए। और ये बात उन्हें बताई। ३० रूपये का टिकेट था। अब हमे अश्विन भाई के बैग का इलाज करना था। सामने ही हमे एक क्लोकरूम दिख गया। उधर २ रूपये देकर बैग जमा करा सकते थे। उधर अश्विन भाई ने बैग दिया और अब हम क़ुतुब मीनार परिसर में दाखिल होने के लिए चल पड़े। मुझे ये एंट्री नयी लग रही थी क्योंकि हमें सड़क क्रॉस करके जाना था जबकि जब पहली बार मैं उधर गया था तो ऐसा कुछ नहीं करना पड़ा था। या शायद मेरी याददाश्त ही मुझे धोखा दे रही हो।  

हम उधर बढ़ रहे थे कि देखा एक विशेष लाइन भी थी जिधर से उन लोगों को भेजा जाता था जिन्होंने महंगे टिकेट लिए थे। यानी विदेशी पर्यटक जिनसे ५०० रूपये चार्ज किया जाता था। अश्विन भाई ने जब मुझे ये बताया तो मैं हैरान था। मैंने कहा ५०० रूपये में तो क़ुतुब परिसर वालों को विदेशी पर्यटकों को पानी की बोतल और एक-दो चिप्स के पैकेट दे ही देने चाहिए। इतना तो बनता है। वो हंसने लगे। ऐसे ही हम गार्ड भाई साहब तक पहुंचे जन्होने हमारा टिकेट चेक किया। उसका कुछ हिस्सा फाड़ा और हमे अन्दर जाने की इजाजत दी।
गेट के  बाहर टशन में अश्विन भाई 

अब हम परिसर में थे। हम अन्दर जा रहे थे तो एक जगह डाक्यूमेंट्री बिल्डिंग थी। उस वक्त वो खाली थी लेकिन उधर कुतब मीनार के ऊपर डाक्यूमेंट्री दिखाई जाती हैं इसका पता मुझे बाद में चला। अब हमारे पास पूरा परिसर था। मैंने अपने चश्मे दोबारा चढ़ा लिए थे क्योंकि धूप काफी थी। अब हम एक एक करके चीजें देखने लगे। हम २ बजकर १९ मिनट पे अन्दर दाखिल हुए थे और ३ बजकर २१ मिनट पर उधर से निकले थे। यानी एक घंटा हमने उधर बिताया।
क़ुतुब परिसर के आसपास मौजूद स्मारकों के विषय में बताता एक बोर्ड 

रास्ता दिखाता शिलालेख 
हम अन्दर घुस रहे थे कि एक शिलालेख ये बता रहा था कि उधर मुग़ल बगीचा, मुग़ल मस्जिद है तो हम उधर की तरफ मुड़ गये। हमने फैसला किया था कि कुतब मीनार को सबसे आखिरी में देखेंगे। वैसे ये आपपर निर्भर करता है आप कैसे घूमकर आना चाहते हैं।  इसके बाद हमें एक शिलालेख दिखा जो कि एक तरफ तो अलाई  मीनार और इल्तुमिश के मकबरे की तरफ पॉइंट कर रहा था और दूसरी तरफ क़ुतुब मीनार और कुव्वत उल  इस्लाम मस्जिद   हम अलाई मीनार की तरफ चल दिये।

अलाई मीनार को  अल्लाउद्दीन खिलजी ने बनवाने की ठानी थी। ये २४.५ मीटर लम्बी है। वो चाहता था कि इसकी ऊँचाई लगभग क़ुतुब मीनार के बराबर ही हो लेकिन उससे पहले ही उसकी मृत्यु हो गयी। ये मीनार तब तक एक ही मंजिल की बन पायी थी। लोग बाग़ इसके आसपास फोटो खींच रहे थे। इसके चारो तरफ रस्सी सी बंधी थी लेकिन इससे उन्हें फर्क पड़ता हो ऐसा तो नहीं दिख रहा था। गार्ड साहब को बारबार अपनी सीटी बजाकर उन्हें निकलवाना पड़ता। इसमें कुछ खिड़की नुमा चीजें भी थी जिसमे भी लोग बाग़ चढ़ जाते। जाने क्यों जब वो ऐतिहासिक ईमारत देखने जाते हैं तो उनके अन्दर का रॉक क्लाईम्बर जागृत हो जाता है।







एक और शिलालेख 
अलाई मीनार

उसके पास ही एक मस्जिद थी जो कि खस्ता हाल थी। इसमें एक अजीब चीज दिखी। जो शिलालेख ये दर्शाता था कि ये मस्जिद है वो वहां उगी झाड़ी से ढका हुआ था। पता नहीं किस मेधावी मनुष्य ने उधर झाड़ी लगवाई थी और अगर लगवाई थी तो उसे शिलालेख को अलग जगह स्थापित करने की बात क्यों न सूझी। ये बात मैंने अश्विन भाई से भी कही तो उन्होंने कहा भाई जिसने काम किया होगा उसने इतना सोचने की जहमत ही नही उठाई होगी या ये शिलालेख फिक्स होगा।
मस्जिद



इसके आस पास ही एक कब्रिस्तान था जिधर गये। उसपे भी सेल्फियों का दौर चालू था। पता नहीं लोगों को पता था या नहीं कि ये एक कब्रिस्तान है। इसके बाद हम आगे बढे तो इल्तुमिश का मकबरा आया। इसके चारो तरार जो स्ट्रक्चर बना था उसकी अंदरूनी दीवार पे काफी सुन्दर कारीगरी की गयी थी। भीड़ इसके भी अन्दर काफी ज्यादा थी। इसके पास ही एक दरवाजा नुमा स्ट्रक्चर था जिसमे काफी खूबसूरत कारीगिरी की गयी थी।
कब्रिस्तान




इल्तुतमिश का मकबरा

मकबरे के अन्दर के हिस्से पे की गयी कारीगरी 

इल्तुतमिश का मकबरा





इसके बाद हम फिर कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद आये । ये भी देखने लायक थी।  इसके बाद क़ुतुब मीनार देखा। फिर अलाई दरवाजा देखा। ये कुव्वत-ए-इस्लाम मंदिर का दक्षिण का दरवाज़ा है। ये अल्लाउद्दीन खिलजी द्वारा किये गये मस्जिद के विस्तार का भाग है। मूलतः, कुतुबुद्दीन ऐबक ने इसका विस्तार उत्तर दक्षिण की ओर करवाया था। फिर खिलजी ने इसका विस्तार न केवल उत्तर दक्षिण बल्कि पूर्व की ओर करवाया जिसमे की स्तम्भ युक्त बरामदा एवं अलाई दरवाजे के जैसे चार और दरवाजे थे। लेकिन उनमे से अब अलाई दरवाजा ही टिका हुआ है ये सब गिर चुके हैं।

इसके बाद हमने इमाम जामिन का मकबरा देखा। फिर लोह स्तम्भ देखने के लिए गये जो कि बगल में ही था। कुव्वत ए इस्लाम मंदिर के बरामदे में ही ये मौजूद है जिसमे की संस्कृत में लिखा गया है। ऐसा कहा जाता है कि इसे भगवन विष्णु की ध्वजा के रूप में विष्णुपद पहाड़ पर लगाया गया था। ये राजा चन्द्र की याद में लगाया गया था। ऐसा कहा जाता है कि तोमर राजा अंग्पाल इसे दिल्ली में ग्यारवीं शताब्दी में लेकर आये थे। ऐसा भी कहा जाता है कि इल्तुमिश ने इसे १२३३ ईसवीं में उदयगिरी से लाकर इधर स्थापित किया था। इसकी ऊँचाई २४ फीट है जिसमें से ३ फीट जमीन के नीचे है। इसके ऊपर कभी विष्णु की सवारी गरुड़ की मूर्ती हुआ करती थी जो कि अब खो चुकी है। इसका वजन ६ टन है। इस पर कभी जंग नहीं लगता है। और कहा जाता है कि जिस तकनीक से भारत में १६०० वर्ष पूर्व इसे बनाया गया वो अद्वितीय थी क्योंकि सबसे आधुनिक तकनीक से भी इसे 1851 से पहले इसका निर्माण करना मुश्किल था। ये सब पढ़कर आपको गर्व भी होता है और दुःख भी। गर्व इसलिए कि ऐसी तकनीक हमारे पूर्वर्जो के पास थी और दुःख इसलिए कि वो क्यों खो गयी। जाने इतिहास के गर्त में हमने क्या क्या और कैसे कैसे अजूबे खो दिए होंगे। अगर वो सब सुरक्षित रहते तो न जाने हम अभी किधर होते।

इसके बाद ऐसे ही घूमते घामते फोटो खींचते खांचते अल्लाउदीन खिलजी द्वारा बनाये गये मदरसे और उसके मकबरे को देखने गये। फिर आगे चलकर सैंडरसन की सूर्यघडी देखने गये। वो पुरातत्व विभाग के अधीक्षक थे जिन्होंने कुतुबमीनार पर उत्खन कार्य किया और इधर मौजूद इमारतों के संरक्षण और
मरम्मत कार्य में शामिल रहे। इसमें लैटिन भाषा में एक पंक्ति लिखी है जिसका की अर्थ है : परछाई लुप्त हो जाती है; प्रकाश मौजूद रहता है।

इमाम ज़ामिन का मकबरा
क़ुतुब मीनार 

लोह स्तम्भ 

खिलजी का मकबरा
क़ुतुब परिसर में ही कहीं



वक्त का पता लगाते सत्यान्वेषी अश्विन 
क़ुतुब परिसर से बाहर निकलते हुए ये स्ट्रक्चर दिखा था 
अन्दर जाकर जब हम घूम रहे थे तो अश्विन भाई और मेरे बीच इस बात को लेकर विमर्श हुआ कि यहाँ ये सब बनने से पहले क्या रहा होगा? उन्होंने कहा यहाँ पहले हिन्दू इमारतें थी जिनको तोड़कर ये बनवाया गया था। मैंने कहा हो सकता है लेकिन ये ऐतिहासिक तथ्य रहा है कि कई राजाओं ने अपनी विजय के बाद दुसरे राजाओ की बनाई चीजों को लेजाकर अपने यहाँ स्थापित किया है या उनके  धर्म से जुडी चीजें तोड़ी हैं और उनके स्थान पर अपने पूज्य के लिए चीजों का निर्माण किया है। ऐसे में हम अगर ऐतिहासिक चीजों पर ही चिपके रहेंगे तो हमारा वर्तमान कुंठा से भरा रहेगा। हमे वर्तमान में जीना है। इसे सवारना है। व्यक्तिगत तौर पर तो मेरा यही मानना है।

अब हम काफी कुछ देख चुके थे। धूप में चलते हुए थक चुके थे। सुबह नाश्ता भी हल्का किया था तो पेट में चूहे कूद रहे थे। मैंने अश्विन भाई से पूछा कि महरौली पुरातत्व पार्क चलना है तो उन्होंने कहा अगले दिन देखेंगे। मैं भी थक चुका था तो जिद नहीं की बस मज़ाक में ये कहा कि हम इतनी जल्दी थक गये किसी बड़ी ट्रेक में क्या होगा हमारा। हम बाहर को आ गये और ऑटो पकड कर मेट्रो की तरफ बढ़ चले। मुझे कुछ साउथ इंडियन खाने का मन था जो कि उधर हमे नहीं मिला था। इसलिए हमने निर्णय लिया कि साकेत चलते हैं जहाँ मेट्रो के आसपास कुछ न कुछ होगा तो उधर पेट पूजा करेंगे और फिर वापसी कर लेंगे। हमने इसी पे अमल किया और साकेत गये। उधर एक रेस्टोरेंट देखा जहाँ एक पनीर डोसा और एक लस्सी मंगवाई। फिर बातें करते हुए उसे निपटाया, बिल अदा किया और वापिस मेट्रो के तरफ बढ़ गये। मेट्रो पहुंचे तो जल्द ही हम दोनों की ट्रेन आ गयी।

एक छोटी सी यात्रा समाप्त हुई। हम अपनी अपनी  ट्रेन में जाकर बैठ गये। अश्विन भाई नॉएडा की तरफ  चले गये और मैं हुडा की तरफ निकल गया।

हमने एक दूसरे से विदा ली इस वादे के साथ कि दुबारा किसी यात्रा पे जाना होगा।
मुझे क्या पता था कि ये वादा अगले हफ्ते ही पूरा होगा। हम किधर गये ? ये आपको अगली कड़ी में बताऊँगा। तब तक के लिए मुझे इजाजत दीजिये।

8 टिप्पणियाँ

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  1. Wah bhai ji maza aa gaya padhkar waise main kai bar kutub minar gaya hoon, par ek bar phir se jane ki ichha ho rahi hai par sayad samay ki kamei ke karan nahi ja pa raha hu, bahut acha vivran kuch chitra to bilkul painting jaise jag rahe hai jsie alai minar

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    1. जरूर होकर आइये। बस किसी दिन इधर के लिए निकल चलिए बिना प्लानिंग के। मेरा अनुभव है ऐसा करो तो यात्रा हो ही जाती है।

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  2. क्योंकि मैं दिल्ली में रहता हूं इसलिए क़ुतुब मीनार को देखने का बचपन से लेकर अब तक कई बार मौका मिल चुका है

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    1. जी आपने सही कहा। मैं पिछले डेढ़ साल से गुडगाँव में रह रहा हूँ। नज़दीक ही पड़ता है। ये मेरा दूसरी बार जाना हुआ। लेकिन दोनों ही अनुभव बिलकुल जुदा थे। क्योंकि दो अलग अलग लोगों के साथ गया था और दोनों दिनों की घटनायें भी एक दूसरे से काफी भिन्न थीं।

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  3. वाह कभी कभी प्लान कैंसिल करना अच्छी बात होती है...बढ़िया पोस्ट

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    1. जी,सही कहा। प्लान कैंसिल हो सकता है लेकिन उसके लिए घुमक्कड़ी क्यों कैंसिल की जाये। जिधर मौका मिले घूम लेना चाहिये।

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